शुक्रवार, 4 मई 2012

ए ट्रेन टू पाकिस्तान!!!

राजधानी एक्सप्रेस में एक किताब यात्रियों को मिलती है , जिसमे रेलवे के अतीत और वर्तमान के बारे में बताया जाता है | साथ में एक कहानी भी होती है जो ट्रेनों के इर्द-गिर्द लिखी गयी हो | पिछले साल दो बार राजधानी में सफर किया, दोनों बार एक-एक कहानी पढ़ने को मिली, एक थी रस्किन बोंड  की “टाइगर इन द टनेल" , और दूसरी थी एक कहानी एक गाँव के बारे में , पूरा गाँव ट्रेनों की आवाजाही से खुद को ट्यून रखता था | ट्रेन का आना जाना उनकी दिनचर्या चलाता था | खुशवंत सिंह के प्रसिद्ध उपन्यास “ट्रेन टू पाकिस्तान" का पहला अध्याय है वो कहानी |

जब से पढ़ी वो कहानी,  पूरा उपन्यास पढ़ने का मन था | पर कहीं मिली नहीं या ये कहें कि मन से कोशिश भी नहीं की | फिर पिछले दिनों यहाँ की डिस्ट्रिक्ट लाइब्रेरी में भारतीय लेखकों की किताब ढूंढते ढूंढते मिल गयी |  और पूरे दो हफ़्तों में पढ़ के निपटा डाली | आज उसी किताब के बारे में लिख रहा हूँ |

संक्षेप में कहानी : 
एक प्रेम कहानी है जो भारत-पाकिस्तान के बंटवारे की पृष्ठभूमि में लिखी गयी है | कहानी का मुख्य पात्र “जग्गा बदमाश" है|  वो एक सिख है | वो अपने गाँव की ही एक मुसलमान लड़की , नूरन, से प्यार करता है | गांव का नाम "मनो-माजरा" है | समय १९४७ के सितम्बर के आस-पास का है और जगह जगह धर्म के नाम पर  दंगे भड़के हुए हैं | जग्गा को सूरज ढलने के बाद गाँव छोड़कर जाने की इज़ाज़त नहीं है | पर वो रात के अँधेरे में ही नूरन से मिलने जाता है |  उसी रात उसका एक दुश्मन, मल्ली, गाँव के एक मात्र हिंदू परिवार लाला रामलाल के घर डकैती डालता है और उसका खून कर देता है | 

अगले  दिन गाँव में इक़बाल नाम का समाजसेवी आता है जो गांव के गुरूद्वारे में ठहरता है | लाला रामलाल के खून के सिलसिले में पुलिस जग्गा और इकबाल दोनों को गिरफ्तार कर लेती है |  पुलिस जग्गा से मल्ली बदमाश का नाम उगलवा लेती है और गिरफ्तार भी कर लेती है |

इसी बीच "मनो-माजरा" स्टेशन पर एक ट्रेन आकर रुकती है |  ट्रेन पाकिस्तान से आयी हुई होती है जो लाशों से भरी होती है | दंगे भड़कने का खतरा हो जाता है | शहर के मजिस्ट्रेट “हुकुम चंद" एक चाल चलते हैं जिससे वो मुसलमानों को सुरक्षित कैम्प में पहुँचाने में सफल तो हो जाते हैं पर पुलिस को मल्ली बदमाश को छोड़ना  पड़ता है और वो कुछ और लोगो के साथ मिलके "खून का बदला खून" की तर्ज़ पे पाकिस्तान जाने वाली ट्रेन में लोगो को मार डालने का प्लान बनाता है | 

उपन्यास में एक प्रेम कहानी और भी है , मजिस्ट्रेट “हुकुम चंद” और “हसीना" की भी | हसीना पेशे से एक वेश्या है और उस ट्रेन में भी सवार है जो पाकिस्तान जा रही है | हुकुम चंद के कहने पर पुलिस जग्गा और इकबाल को छोड़ देती है | जग्गा को जब ये पता चलता है कि मल्ली ट्रेन में जा रहे लोगो को मारने वाला है और उसी ट्रेन से मनो-माजरा के मुसलमान भी जा रहे हैं जिसमे से एक नूरन भी है | तो वो अपनी जान पर खेलकर मल्ली के मंसूबों को कामयाब नहीं होने देता है | 


उपन्यास  के बारे में :
१९५६ में प्रकाशित हुआ ये उपन्यास, लेखक खुशवंत सिंह के सबसे प्रसिद्ध उपन्यासों में से एक है |  मुझे जो संस्करण मिला वो भारत की आजादी की साठवीं imageसालगिरह पर प्रकाशित विशेष अंक है | इसमे मार्गरेट बौर्के- व्हाइट के लिए कुछ चित्र भी हैं जो उन्होंने १९४७ में बंटवारे के समय लिए थे | चित्र भयावह हैं और इसीलिए  उपन्यास के मुख-पृष्ठ पर ही “विचलित कर देने वाले चित्र" की चेतावनी भी लगी हुई है |

कहानी के अलावा मुझे उपन्यास के दो अंश बहुत बढ़िया लगे | एक तो जिसमे लेखक ने "मनो-माजरा" के लोगों की दिनचर्या और वहाँ से गुजरती ट्रेन की आवाजों का तारतम्य दिखाया है | और दूसरा वो जिसमे खुशवंत सिंह “मानसून" का वर्णन करते हैं | दोनों ही हिस्से थोड़े लंबे ज़रूर लगे हैं पर कहानी के साथ गुंथे हुए हैं | कुछ देर बाद ही उनकी आवश्यकता , जो कथानक के लिए है, समझ आ जाती है | 

चित्र वाकई में  ह्रदय विदारक हैं  | कुछ को देखकर दिल दहल उठता है | मसलन एक वो चित्र जिसमे रेलवे लाइन के पास एक लाश पड़ी है और पास के प्लेटफोर्म से लोग गुजर रहे हैं, किसी को फर्क ही नहीं पड़ रहा है | ज़िंदगी इतनी सस्ती होती दिखती है | एक और चित्र है जिसमे कूड़े के ढेर में  कटा हुआ पैर का पंजा पड़ा हुआ है | एक चित्र में घरों की छत पे गिद्ध बैठे हुए हैं और उसका वर्णन पढ़ के समझ आता है कि वो किस लिए बैठे हुए हैं |


अब अपनी बात :
उपन्यास को पिछले शनिवार खतम किया और अगले दिन इसी पर बनी फिल्म देखी जिसका नाम भी उपन्यास के नाम पर ही है |  यहाँ से वो लिख रहा हूँ जो मेरे दिमाग में चल रहा है |

बंटवारा किसी के लिए अच्छा नहीं हुआ | दिल्ली में बैठे हुकुमरानों ने इसका निर्णय लिया और हजारों लोग उस एक फैसले की कुर्बानी चढ़ गए | ना केवल वो जो मारे गए, बल्कि वो भी जो अपना सब कुछ छोड़ के सरहदों को पार कर गए | ये एक ऐसी त्रासदी थी जिसका भुगतान दोनों देश आजतक भुगत रहे हैं |

खैर इस मुद्दे पर बातें बहुत होती आयी हैं, और आगे भी होती रहेंगी |बात उपन्यास की करते हैं एक बार फिर से, पर अब कहानी के बारे में नहीं , किरदारों के बारे में | देखा जाये तो कोई भी किरदार पूरी तरह से सकारात्मक नहीं है | एक तरफ जग्गा और मल्ली हैं, जो बदमाश हैं | दूसरी तरफ मजिस्ट्रेट और उनका सरकारी ताम-झाम है |  पूरा अपनी मर्जी का मालिक | उसके पास ताकत है पर नीयत नहीं है | या ये कहें कि खुद को “प्रैक्टिकल" होने की दहलीज में बाँध लिया है | इतनी सब ताकत होने के बावजूद पूरा तंत्र दंगे होने के नाम से ही सिहर उठता है | गलत फैसले करता है |


"हुकुम चंद", रंग-रलियों में डूबे हुए हैं | पूरे जिले की जिम्मेदारी है उनपर, वो भी ऐसे समय में जब कुछ भी स्थिर नहीं है , पर उन पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है | उनके सलाहकार भी ऐसे ही हैं | 

एक इकबाल है , समाज सेवी है | लन्दन में पला बढ़ा है |  समान अधिकारों की बात करता है | पर गांव में पूरी तरह फिट नहीं बैठता | टिन के डब्बों में बंद खाना खाता है | लोग उसकी बात सुनते हैं क्यूंकि वो पढ़ा लिखा है | पर जब कुछ करने की बारी आती है तो नशे में धुत होकर सोचता है “The doer must do only when the receiver is ready to receive. Otherwise, the act is wasted” | और सो जाता है |

फिर एक गांव है, जिसमे लोग रहते हैं | उनमे कोई आपस में गिला-शिकवा नहीं है |  दंगों की घटना से डरे-सहमे तो  हैं , पर साथ रहने को तैयार हैं | लेकिन उन्हें बंटना पड़ता है , ना चाहते हुए भी | उनकी गलती बस यही है कि उनकी किस्मत वो नहीं, दिल्ली में बैठे लोग तय करते हैं |  मल्ली और उसके साथी भी फायदा उठा कर घरों को लूटते हैं और उनको पुलिस का संरक्षण भी मिलता है | पर जग्गा का प्यार जाग उठता है | वो बदमाश है पर फिर भी उसमे दिल है | प्यार हुकुम चंद को भी हो जाता है हसीना से | पर ना तो वो उसे पाकिस्तान जाने से रोक पाते हैं और ना उन लोगो के खिलाफ भी कुछ  कर पाते हैं जो ट्रेन में लोगो को मारने जा रहे हैं |

कुल मिलाके , जिसके पास जितनी शक्ति है वो उतना कमज़ोर बना हुआ है | ठीक वैसा जैसा हम आज तक देख रहे हैं | ये उपन्यास इसलिए भी एक अलग अहमियत रखता है क्यूंकि इसमे हम बीते कल में हुई गलती देख सकते हैं | उस कमी को देख सकते हैं जो आज़ादी लेते समय रह गयी | वो कमी जो आजतक लोगो को बड़े-छोटे, अमीर-गरीब में बांटती रहती है | वो कमी जो आजतक लोगो को देश से पहले खुद के बारे में बार बार सोचने पर मज़बूर करती रहती है | 

ऐसा नहीं था कि मनो-माजरा के मुसलमानों को पाकिस्तान जाना ज़रूरी था क्यूंकि गांव का माहौल खराब था ही नहीं | माहौल बिगाड़ा हुकुम चंद के गलत फैसलों ने | और फिर वो खुद ही उसको संभाल नहीं पाए | कहना पड़ा कि जो हो रहा है होने दो, कहाँ तक रोकेंगे | “गोली हुकुम चंद देखकर रुक नहीं जायेगी, वो तो चलेगी ही” ये सोचके खुद नहीं गए और लोगो को मरने के लिए छोड़ दिया |  उपन्यास ये भी बताता है कि चुपचाप जुल्म सहते रहना भी गलत है | गांव के सब लोग अच्छे थे पर चुपचाप रहे , एक साथ खड़े नहीं हो पाए |  नतीजा सबके सामने था |मुझे तो "मनो-माजरा" कोई एक गाँव नहीं पूरा भारत लगा | वही बेफालतू की लड़ाई, अफरातफरी, खून-खराबा | वो काम करना जिसका कोई हासिल नहीं | इंसान की ज़िंदगी की कौड़ियों में कीमत लगाना | 

और आखिर में :
मन में तो बहुत कुछ आ रहा है कि लिखूं, पर शायद वो बात को भटका देगा | वो फिर कभी | फिलहाल इतना ही कि “ट्रेन टू पाकिस्तान" और इस जैसे कई और उपन्यास, कहनियाँ और किताबें पढ़ना इसलिए भी ज़रूरी है कि हमें अपनी गलतियों का एहसास हो | जो बीत गया उसे भुला देना ठीक है पर बिना कुछ सीखे हुए नहीं | इतिहास रोने के लिए नहीं होता केवल, वो भविष्य निर्माण का रास्ता भी दिखाता है | अगर इस तरह का कोई बदलाव अगर पढ़ने वाले में ला सके तो “ट्रेन टू पाकिस्तान" एक असाधारण उपन्यास है |

आजादी की कीमत कई तरह से चुकानी पड़ी है | अहिंसा के मार्ग पर चलकर हमें आज़ादी तो मिल गयी, पर लोगो के एक जुट ना हो पाने का खामियाजा बहुतों को भुगतना पड़ा | रामधारी सिंह “दिनकर" की चार पंक्तियाँ याद आती हैं:
“पातकी ना होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,
पातकी बताना उसे दर्शन की भ्रान्ति है |
शोषण की श्रंखला के हेतु बनती जो शान्ति,
युद्ध है, यथार्थ में भीषण अशांति है |”
                                                                                                           (“कुरुक्षेत्र", तृतीय सर्ग)

मुझे उपन्यास अच्छा लगा,  उसपर बनी फिल्म तो और भी अच्छी | बाकी आपकी पसंद है, समय मिले तो उपन्यास ज़रूर पढ़ें, फिल्म भी देखें | (फिल्म जब बनी थी तो केवल वयस्कों के लिए ही बताई गयी थी, पर आज का माहौल अलग है )
--देवांशु

19 टिप्‍पणियां:

  1. इसी पृष्ठभूमि पर की कुछ और पुस्तकें सुझा रहा हुं, भिष्म साहनी का तमस, अमृता प्रितम का पिंजर!
    कमलेश्वर का कितने पाकिस्तान भी अच्छा है।

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    1. हाँ जी पढ़ते हैं एक एक करके !!!

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    2. कितने पाकिस्तान तो जरूर पढ़ना, हो सकता है कि तुम लेखक से पूरी तरह सहमत ना हो, लेकिन एक अलग दृष्टिकोण देखने मिलेगा.

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    3. उपन्यास को आज ही खत्म किया.....फिर उसपे बनी फिल्म देखी...हमें एक दो सीन को छोड़कर कहीं नही लगा कि निर्देशक ने कहानी के साथ न्याय कर पाए हैं।

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  2. बेहद अच्छी और सारगर्भित समीक्षा. किताब पढ़ी तो नहीं है...हाँ फिल्म के कुछ रशेस देखे हैं पहले...और कुछ डॉक्यूमेंट्री भी. भीष्म साहनी का तमस मुझे भी अच्छी लगी थी...पढ़ सकते हो.

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    1. फिल्म एक अच्छा एडोप्शन है बुक का, किताब पढ़ते वक्त जो स्केच दिमाग में बनता है फिल्म लगभग उसी के आसपास आके ठहरती है | कुछ सीन तो वाकई में अच्छे लिखे गए हैं !!!

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  3. धन्यवाद भईया इतनी रोचक उपन्यास के बारे में जानकारी देने के लिए और उसका सार भी आचे से चित्रित किया है आपने |इतिहास के बारे मैं जो भी कहा है उचित लगा मुझको |आभार

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    1. शुक्रिया सत्यव्रत | इतिहास के बारे में जानना बहुत ज़रूरी है | और उससे भी ज्यादा ज़रूरी है ये जानना कि सच क्या है | ज्यादातर तो हम उसे ही सच मान लेते हैं जो लिखा गया है या जिसके बारे में हमने जैसा सुना है | पर एक तार्किक निर्णय लेना बहुत ज़रूरी है !!!

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  4. बिना पढ़े ही आपने इस कहानी को हमें भी पढ़ा दिया .वाकई अद्भुत समीक्षा रही और निष्पत्ति भी !

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  5. कितने पकिस्तान जरूर पढ़ना .... किरदारों का एक दम सामने आना उनकी पीड़ा,चीत्कार आपके ऊपर हावी हो जाते है

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  6. यशपाल जी का "झूठा-सच" भी एक बेहतरीन उपन्यास है जो विभाजन की त्रासदी पर लिखा गया है.

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  7. chalo yar bina pade hi bahut kuch padne ko mil gaya,waise sunny bhaiya ki gadar se kafi milti hai...bahut hi badiha likhe ho dost .....idhr maine bhi taslima nasreen ki book lajja padi jise pad kar kafi lajiit ho gaya...

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  8. यह किताब भी पढ़ी है और फिल्म भी देखी हैं. और पढते हुए मन इतना विचलित हो जाता है कि मन किया बस छोड़ दूं. परन्तु छोड़ा नहीं जाता.वाकई एक असाधारण उपन्यास है ये.

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  9. चकाचक समीक्षा कर डाली। अब ये किताब भी पढ़ ही डालेंगे हम भी।

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