गुरुवार, 23 मई 2013

बॉम्बे टाकीज़….

अनुराग कश्यप :

लगता है जैसे भदेस का चित्रण करना उनकी फितरत बन गयी है या उसे वो अपनी यू एस पी की तरह सेट कर देना चाहते हैं ( या कर भी चुके हैं ) | अगर नाम ना बताया जाता तो ये शक हो सकता था कि शायद विशाल भारद्वाज ने इसे डायरेक्ट किया हो| संगीत का जितना स्कोप बन सकता था, उससे भी बेहतर है : “बच्चन-बच्चन" और “मुरब्बा" दोनों इम्प्रेसिव | पर कथानक कहीं कहीं खींचा जाता दिखा | शायद छोटा हो सकता था | एक बार देखा भी जा सकता है, एन्जॉय भी किया जा सकता है | दुबारा देखूँगा तो सिर्फ और सिर्फ संवादों के लिए |

 

जोया अख्तर :

सब्जेक्ट क्या था ? एक लड़का जिसको डांस सीखना है और उसको लड़कियों के कपड़े पहनना अच्छा लगता है | दोनों में से बुरा क्या है ? डांस सीखने की ललक या लड़का होते हुए लड़कियों के कपड़े पहनना | समझ नहीं आया मुझे | हाँ, बस “शीला की जवानी" गाना हाल में देख लिया ( तीस मार खां देखने की हिम्मत तो टीवी पर भी नहीं है) | रणवीर शौरी वेस्ट किये गए, कुछ बेहतर कर सकते थे | बच्चे ने कुछ अच्छे सीन दिए | पर फिल्म डब्बा गोल टाइप ही लगी |

 

दिबाकर बनर्जी :

चारों में बेहतरीन , और शायद सैकड़ों-हजारों  फिल्मे जो पिछले १०० सालों में बनी हैं उनमे से ज्यादातर पर भारी | कुल मिलकर ८-१० फ्रेम में कथानक खत्म | जित्ता ज़रूरी उतना संगीत | और कहानी का सबसे अहम हिस्सा बिना किसी डायलोग के सिर्फ नवाज़ुद्दीन की एक्टिंग और बैकग्राउंड में बजती बांसुरी के साथ | पहला और आख़िरी फ्रेम भी लगभग एक सा, बस जो अंतर वही कहानी  | १०० सालों का सबसे बड़ा अचीवमेंट : नवाज़ुद्दीन जैसे एक्टर और उनके लिए दिबाकर जैसे डायरेक्टर |

 

करन जोहर :

मेलोड्रामा बनाने के बादशाह जो फ़िल्में लाल-पीले रंग , ग्लिसरीन के आंसूं और बैक-ग्राउंड में आलाप के साथ बनाते आये हैं, पहली बार ऐसी कहानी लाये जो उनके ज्यादातर फैन खुद ही रिजेक्ट कर दें और उन्हें पता नहीं क्या क्या कह के गाली दें | पर ये कहानी चारों में से सबसे बोल्ड है अपने सब्जेक्ट के लिए | सबने अपने हिसाब से रोल बढ़िया किया है | मदन मोहन जी के संगीत का बहुत बढ़िया प्रयोग | पर जिस समाज में एक लड़के और एक लड़की की शादी के बहुत कम ही कॉम्बिनेशन को मंजूरी मिली हो,  उसके लिए फिल्म में थूंकने के लिए काफी कुछ है | और अगर आप इस समाज से बगावत का तेवर रखते हैं तो ये आपको अच्छी लगेगी  ( और उसके लिए ज़रूरी नहीं आप वैसे हो, जैसे इसके किरदार दिखते  हैं)|

 

बॉम्बे टाकीज़….

मैं फिल्म को याद रखने या १०० साल के सोवेनियर की तरह सहेजने के कारण ढूँढने की कोशिश कर रहा हूँ | दिबाकर, नवाज़ुद्दीन , करन जोहर , अमित त्रिवेदी (फिल्म के संगीतकार) कुछ उम्मीद देते हैं, पर अंत में दिखाया गया गाना दिल तोड़ देता है | ये विडम्बना से बढ़कर कुछ नहीं कि फिल्म को चलाने के लिए ये गाना घुसेड़ा गया और वो  अपने पहले हाफ की एडिटिंग को छोड़कर कोई छाप नहीं छोड़ पाया | और यही भारतीय सिनेमा के १०० साल की सबसे बड़ी दुर्गति है |

 

५ में से (चारों के लिए अलग-अलग), अनुराग और जोया के खाते से २-२ और करन जोहर के खाते से १ अंक लेकर दिबाकर को १० |

--देवांशु

3 टिप्‍पणियां:

  1. दिबाकर बनर्जी की फिल्म को १० अंक की बात से पूरी तरह सहमत हूँ और नवाजुद्दीन को देने के लिए तो मेरे पास अंक कम पड़ जायेंगे | सदाशिव अमरापुरकर को सालों बाद एक बार फिर देखकर अच्छा लगा |

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  2. Aapne achhe se sameta hai film ko.
    Jo apni zindagi ke alaawe filmo se kuch sikhte hain to beshak unhen yah film dekhni chahiye...
    Is film ke lie mai apni raay dena chaahunga.
    ''koi ye samjh rakhta ho ki 'sahi' dusro ki nazar me utna hi 'galat' ho sakta h jitna ki khud ki nazar me kuchh galat,sahi ho -Karan johar
    ''agar kisi ke lie paisa hi sabkuch h to use kabhi bhi rishte nhi banaane chahiye na hi purane rishton ko lekar chalna chahiye -Dibakar banarji
    ''hansi udaane ke lie duniya bhar ki bhid khadi h,aap agar sach me sahi ho isiliye aap bhid se alag khade hain -Joya akhtar
    ''aaj ki duniya emotional hokar rishton ki parwaah kiye bagair kis had tak chaalu ban sakti hai - Anurag kashyap

    overall jo cinema ko time pass ka zariya nhi maante,unko pasand aayegi.
    Jyada ho gya na,bhaiya :):)

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  3. Bhai, hum karan johar ko b 3.5/5 denge. kisi me to itni himmat hai, kahne ki.

    p.s. hum waise nhi h. ;)

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