बचपन में देखी थी ये फिल्म, “जिस देश में गंगा बहती है", तब इतना समझ नहीं आया था कुछ | ५-६ साल पहले एक बार और देखी | फिल्म की कहानी तब समझ आयी |
फिल्म का नायक “राजू" एक सीधा, सादा और सच्चा इंसान है| एक दिन डाकू उसे पुलिसवाला समझ के उठा ले गए हैं, पर जल्द ही उन्हें अपनी गलती का पता चलता है | इस बीच राजू अपने व्यवहार से पूरे गिरोह को प्रभावित करता है| और एक दिन बड़े उतार चढाव के बाद पूरा गिरोह आत्मसमर्पण कर देता है पुलिस के सामने|
१९६० में आयी ये फिल्म काफ़ी पसंद की गयी थी| राजकपूर ने अक्सर इस तरह के किरदार किये हैं जिसमे एक आम आदमी की छाप दिखाई देती है | फिल्म उनके अभिनय के लिए भी याद की जाती है और संगीत का पक्ष भी कॉफी मजबूत है |
और फिर आती है २०१२ की “पान सिंह तोमर" | जब “जिस देश में गंगा बहती है” प्रदर्शित हुई होगी उस वक्त "पान सिंह” राष्ट्रीय खेलों में प्रतिभाग कर रहा था और नेशनल रिकार्ड बना रहा था |पर उसकी ज़िंदगी भी उस फिल्म के किरदारों के बीच से होकर गुज़री , बस उसका अंत कुछ अलग हुआ | या ये कहें कि उसका अंत वही हुआ जो हो सकता था|
“पान सिंह तोमर" फिल्म की पृष्ठभूमि लगभग वही है जो “जिस देश में गंगा बहती है” की है | पर नायकत्व में फर्क है, उसकी परिस्थितियों में फर्क है | हालाँकि सोचने का तरीका बहुत अलग नहीं है, एक सा ही है कमोबेश|
राजू सबसे शांति से रहने की बात करता है, पान सिंह वही कोशिश अपनी ज़िंदगी में करता है | पर लाख कोशिश करने के बाद भी हार जाता है | जिस पुलिस के सामने राजू पूरे गिरोह के हथियार डलवाता है वही पुलिस “पान सिंह" को हथियार उठाने पर मजबूर कर देती है |
राजू गैंग के सरगना की मदद करता है तो सरगना उसे अपने सर आँखों पर बिठाता है | वहीं दूसरी ओर देश के लिए खेलने वाले “पान सिंह", अपने बेटे पर हुए अत्याचार की रिपोर्ट भी नहीं लिखवा पाता | उसे पहले तो ये साबित करना पड़ता है कि वो खिलाड़ी है, देश के लिए खेला है | और फिर उसके मेडल बहार फेंक दिए जाते हैं|
पान सिंह के दिल में एक वक्त इस देश के लिए मर जाने का जज्बा था, पर एक दिन वो इसी देश के रक्षकों से अपनी रक्षा के लिए गिड़गिड़ाता दिखाई देता है | पर उसकी कोई नहीं सुनता | हार के वो बागी बन जाता है | अपना बदला लेता है| पर सब यहाँ खत्म नहीं हो पाता | कदम कदम पे धोखे मिलते हैं, अपने भी साथ छोड़ते हैं |
पान सिंह वक्त का मारा लगता तो है, पर है नहीं | उसमे अगर सच्चाई है , सादगी है तो अपने ऊपर उठे हाथ को काटने की ताकत भी | वो एक गाल पे पड़े चांटे का जवाब दूसरा गाल आगे करके देता है पर जब कोई उसके दूसरे गाल पे भी चांटा मारता है तो वो उसको जान से मार देने का माद्दा भी रखता है |
और शायद यही वो मोड़ है जब वो हमारे “सभ्य और सहिष्णु" समाज में बुरा बन जाता है | लोग ये नहीं पूछते कि क्यूँ उसने ५००० मीटर की रेस छोड़ी और क्यूँ बाधा दौड़ में दौड़ा | कितनी आसानी से बात मान ली थी उसने | पर जब एक बार वो बन्दूक उठा लेता है तो हर किसी से अपनी बात बोलने के बाद बोलता है “कहो हाँ"| डर के ही सही पर दुनिया मानती है उसकी बात |
“ये दिल का कमल सबसे सुन्दर, मेहनत का फल सबसे मीठा” कहने वाला राजू सबको सदभाव का पाठ पढाता है | पान सिंह उसे समझता भी है शायद | पर उसकी ज़िंदगी “सिनेमा" से इतर हो जाती है| दोनों कथानक एक से होते हुए भी बहुत अलग हैं इसी वजह से |
मैं दोनों फिल्मों कि तुलना नहीं करना चाहता हूँ| राजकपूर या इरफ़ान खान दोनों मंझे हुए अभिनेता है और दोनों मेरे पसंदीदा भी | पर दोनों फिल्मों की अप्रोच मुझे सोचने पर मजबूर करती है | “जिस देश में गंगा बहती है” जहाँ से शुरू होती है , “पान सिंह तोमर" उससे पहले कहीं शुरू हो चुकी होती है| पर “पान सिंह तोमर" का कोई अंत नहीं है | क्यूंकि वो कोई कहानी नहीं, एक आपबीती है | “पान सिंह" आजादी के बाद हर पल मरता आ रहा है | हाँ रूप रंग बदलता रहता है उसके खत्म होने का | कभी वो ज़हर खा लेता है, कभी उसकी लाश पेड़ से टंगी पायी जाती है , कभी मुठभेड़ में मारा जाता है | कभी कभी वो नहीं भी खत्म होता , पूरी ज़िंदगी अपना ही बोझ ढोता रहता है |
कहते हैं “जिस देश में गंगा बहती है” तत्कालीन प्रधानमत्री जी के आग्रह पे बनाई गयी थी | उस समय डकैतों का कॉफी दखल था आम ज़िंदगी में | ये भी सुना है कि काफ़ी गिरोहों ने हथियार भी डाले थे उस फिल्म को देखकर | पर वो फिल्म या तो हमारे हुकुमरानों ने देखी नहीं या देख के भी नज़रंदाज़ कर दी | वरना “पान सिंह तोमर" शायद केवल एक अच्छे खिलाड़ी की तरह ही याद किया जाता|
जब तक हम ये नहीं जानेंगे कि हर शख्श हमारी तरह सांस लेता है, उसके सीने में भी दिल धड़कता है | उसे भी दर्द होता है , उसके भी कोई अपने हैं | वो भी सर उठा के जीना चाहता है | उसे भी उसी ऊपर वाले ने बनाया है जिसने हमें बनाया है |तब तक “पान सिंह तोमर" बनते रहेंगे और बार बार आकर वही सवाल खड़ा करते रहेंगे तो “पान सिंह तोमर ” ने किया |
नहीं जानता कि कौन ज्यादा सही है “राजू" या “पान सिंह तोमर" | पर हाँ पान सिंह से शायद ज़ुल्म सहा नहीं गया | किसी को मारना गुनाह है, पर अपने ऊपर हुए अन्याय को झेलना और चुप रहना उससे भी बड़ा गुनाह | पान सिंह शायद इन्ही दो गुनाहों के बीच दब गया |
--देवांशु
ये फ्लिम हर विचारवान इंसान के दिमाग में खलल पैदा कर देती है
जवाब देंहटाएंआखिर क्यों जो इंसान देश की धरोहर होना चाहिए , उसे मारना पड़ता है ..
आखिर गलती किसकी थी ?
और एक सबसे सही बात ये लगी कि
"चम्बल में तो बागी रहते है डाकू पाए जाते है संसद में " कहो हाँ .....
Nice Article Bhaiya!!!
जवाब देंहटाएंकल यह पिक्चर देखी। संवेदनशील पिक्चर। अच्छा लिखा है इसके बारे में। :)
जवाब देंहटाएंaapka blog v aapka lekhan dono hi ''UNIQUE'' HAIN .BADHAI .
जवाब देंहटाएं.AB HOCKEY KI JAY BOL
आज देखनी ही है ,,किसी भी तरह..बहुत अलग तरह से और अच्छा लिखा है आपने.
जवाब देंहटाएंपान सिंह सर ग्रेट मैन
हटाएंयह फिलम तो देखनी ही पड़ेगी...!
जवाब देंहटाएंबहुत अफ़सोस होता है के आज के इस दौर मैं.......जब अपना हक अपनों से मांगने के लिए बन्दूक उठानी पड़ती है....
जवाब देंहटाएंदेखनी है ये फिल्म!
जवाब देंहटाएंकौन ज्यादा सही है “राजू" या “पान सिंह तोमर" ?
एक कल्पना है, दूसरा वास्तविक!
तुलना न करते करते भाई आप तो अतुलनीय तुलना कर गए ! शाबाश!
जवाब देंहटाएंdekhni hee padegi
जवाब देंहटाएंसर जी... अति उत्तम... वास्तविकता का अपनी लेखनी से अनुपम चित्रण... हर आदमी हमारे जैसा है और हम भी और लोगो कके जैसे ही..... जिस दिन यह सोच सब के जहन में आ जाएगी हम उन्नति करेंगे...
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