शहर बहुत आसान सा था । आमतौर पर शहर आसान ही होते हैं , मुश्किल तो रहने वाले लोग उसे बना देते हैं । पर इस शहर के लोग आसान से ही थे , तो शहर भी आसान सा हो पड़ा था । शहर में एक कॉलोनी थी , मोहल्ले जैसी नहीं । बेफ़िक्री थोड़ी कम थी लोगों में इसलिए मोहल्ला नहीं था । मोहल्ले में बेफ़िक्री कुछ ज़्यादा हो जाती है । यहाँ नहीं थी ।
कॉलोनी में घरों के डिज़ाइन एक जैसे ही थे , एक सिमिट्री थी । जैसे घरों के दरवाज़े आमने सामने , मिली हुई छतें । कमरे , उनकी खिड़कियाँ एक दूसरे को देखती हुईं । कालोनी ज़्यादा पुरानी नहीं तो लोग कम थे । टाइम भी कम ही हुआ था तो लोगों ने मॉडिफ़िकेशन कम कराए थे । काफ़ी सारे घर अभी भी ख़ाली पड़े थे । घरों में ताले थे , जो मकानमालिकों या किराएदारों के इंतज़ार में थे और इंतज़ार करने के विश्वकीर्तिमानों को ध्वस्त करने की फ़िराक़ में थे ।
ज़माना भी 90 के दशक का शुरुआती दौर था , तो इंटर्नेट पढ़ी जाने वाली मैगज़ीन में पाया जाता था । एफ़॰एम॰ का दौर भी अभी नहीं आया था । कुछ घरों में ही केबल कनेक्शन था और आम राय ये थी कि पढ़ने लिखने वाले बच्चों के घर में केबल टीवी नहीं होनी चाहिए , पढ़ाई ख़राब हो जाती है । ज़्यादातर घरों में सहारा सिर्फ़ दूरदर्शन का था । रेडियो पर मीडीयम वेव और शॉर्ट वेव का रुतबा था ।
हाँ , विडीओ गेम ने दस्तक दे दी थी । पर उसका असर गली में क्रिकेट खेलने वालों पर कम हुआ था । कह सकते हैं वो सारा कुछ था जो उस बचपन की निशानी था , जो घर के अंदर और बाहर बराबर बीता करता था । रहने वाले परिवारों में हर उम्र के बच्चे थे , कुछ बचपन में थे , कुछ जवान , कुछ जवानी की दहलीज़ पर जो ना बच्चों में गिने जाते और ना बड़ों में । ऐसे ही तीन नमूने इस कहानी के मुख्य बालक / पुरुष पात्र हैं ।
पढ़ाई लिखाई वैसे तो अपने यहाँ काम मानी नहीं जाती बल्कि उसे ज़िंदगी जीने के बाद दूसरे नम्बर का धर्म माना जाता है ।इन तीनों का भी मुख्य काम यही था , ऐसा विचार उनके पैरेंट्स का तो था ही कम से कम ।बाक़ी कॉलोनी वालों के विचार इतर थे जो बेवजह नहीं थे । कारणों की चर्चा आएगी बाद में । फ़िलहाल पात्रों पर आते हैं । तीनों में ऐसा कुछ नहीं की नोटिस किया जाए पर हरकतें ऐसी की इग्नोर भी नहीं कर सकते । चेहरे से अगर नूर नहीं बरसता तो हैवानियत भी नहीं टपकती थी । दोस्त तीनों इतने गहरे की काफ़ी का दाग़ उतना गहरा ना हो ।
बंद घरों में भूत होने की कहानियाँ बनाने-सुनाने की उम्र पार हो गयी थी । फ़िल्मी गानों को सुनकर तीनों को लगता था कि कन्या नामक एंटिटी का जीवन में प्रवेश ज़रूरी है पर ऐसा कुछ हो नहीं पा रहा था । अव्वल तीनों ब्वायज़ स्कूल में पढ़ते , दूसरा कॉलोनी के अवेलेबल संसाधन इन्हें घर की मुर्ग़ी दाल बराबर लगते थे, तीसरा इन उपलब्ध पॉसिबल प्रॉस्पेक्ट में से काफ़ी ने इन्हें राखी के बंधन में बाँध लिया था । साथ ही दूसरे मोहल्ले और कॉलोनी के लड़कों से इनकी सुरक्षा का अनकहा ज़िम्मा भी इनके मज़बूत कंधों पर दे दिया गया था या इन्होंने ले रखा था । अब चूँकि इस तरह के ज़िम्मेदार अन्य मोहल्ले और कॉलोनी में भी थे इसलिए और कहीं जहाँ भी इन्होंने दाल का कुकर चढ़ाया कोई ना कोई सीटी निकाल भागा ।
दिल दुखता पर टूटता नहीं । किसी रोज़ विविध भारती पर गुलज़ार का गाना सुन लिया था , बस उस दिन से तीनो छत पर शाम को अक्सर यही गुनगुनाते पाए जाते :
सारी उम्मीद उन लटकते तालों पर थी अब ....
( दास्ताँ शुरू होना बाक़ी है ... )
— देवांशु
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जल बिना जीवन नहीं : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
जवाब देंहटाएंवाह!!बहुत सुंंदर ।
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