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सोमवार, 1 जुलाई 2019

नाम में कुछ तो रखा है !!! ( इश्क वाली कहानी भाग -२ )

कहने को तो बड़े लोग कह गए हैं की नाम में कुछ रखा नहीं , पर नाम जाने बिना काम चलता भी कहाँ है | जैसे चेहरा पहचानने से ज़्यादा अंतर भेदने के काम आता है, कुछ कुछ वैसा ही नाम के साथ है | नाम ऐसी बला है जो है तो आपकी पर उसका उपयोग सबसे ज्यादा दूसरे करते हैं , जैसे रिक्शेवाले का रिक्शा हो : होता रिक्शेवाले का है पर बैठते और लोग ही हैं |

इसलिए नाम की महिमा अपरम्पार न भी हो तो अपार तो है ही...

तो , अब तक की कहानी में ( मने भूमिका की भी भूमिका में ) आपने जाना कालोनी , घर और हमारे अब तक के तीन पात्रों के बारे में | अब चूँकि ये तीनों काफी दूर तक जायेंगे तो इनके नाम भी पता होने ज़रूरी हैं | चीज़ों का आईडिया रहेगा |

नायकों को नाम देना उतना ही मुश्किल काम है मेरे लिए जितना कोई एक कहानी कह पाना | इसलिए नाम अप्रसांगिक लगें तो गलती मेरी होगी |

ये कहना मुश्किल है की तीनों में कहानी का मुख्य पात्र कौन सा है इसलिए परिचय एक बार फिर कालोनी के भूगोल के आधार पर कराने की कोशिश कर रहा हूँ |

दो दोस्तों के घर की दीवारें कॉमन नहीं हैं पर कोने कॉमन हैं | उसमे से एक का नाम शिव और एक का नाम शेखर  है |शेखर  को घर में शेखू  भी कहते हैं | शिव के पिताजी शहर के नामचीन दवाइयों के सप्लयार हैं | शेखर  का अपना घरेलू व्यापार है, घरों के रख रखाव के सामान का | तीसरे दोस्त रवि का घर भौगोलिक रूप से डिस्कनेक्टेड है बाकी दोनों से | शिव और रवि की गली एक है पर घर डायगोनली अपोजिट | रवि के बगल वाला घर शिव के घर के ठीक सामने है और अभी तक "तालायमान" है |

शेखू छत फांद कर अक्सर शिव के घर आ जाता है और चूँकि शिव की पढाई का कमरा ऊपर ही है , इसलिए अक्सर वहीँ पाया जाता है | शेखू  का पढ़ाई से नाता बहुत दूर के फूफा के पड़ोसी जैसा है | शिव को पढाई में इंटरेस्ट है या नहीं, इस पर विद्वानों में मतभेद है , क्यूंकि वो उनके साथ भी रहता है जिनको पढाई में इंटरेस्ट है ( जैसे रवि) और उनके साथ भी , जिनको इससे कुछ लेना देना नहीं है ( जैसे अपना शेखू ) | शिव अपने  ऊपर डॉक्टर या इंजिनियर बनने  का सामाजिक दबाव महसूस करता है , और चूंकि अब वो  नौवीं में आ गया  हैं इसलिए अत्यधित ऊंचाई ज्यादा दबाव डाल  रही है |

बात जहाँ तक रवि  की है , तो उसका मामला क्लियर है , उसे न डॉक्टर बनना है और ना इंजिनियर , क्यूंकि पिताजी डॉक्टर  हैं और माँ इंजिनियर रह  चुकी  हैं | वो आर्मी में जाना  चाहता है , पढ़ने का शौक है उसे |

कहानी पढ़ाई पर आकर अटक गयी , इसलिये थोड़ा भटका जाए |

शिव के मामा , जो कहीं बाहर सेटल हो गए हैं , गर्मियों की छुट्टियों में  उसके लिए वीडियो गेम लेकर आये , पर उस पर एकक्षत्र  साम्राज्य शेखू का है , खासकर मारिओ  और डकहंट  पर उसका हाथ काफी साफ है |  रवि को टैंक और टेनिस पसंद है | शिव मोरल सपोर्ट देने में विश्वास रखता है |

तीनों अपने घरवालों की नज़रों में शिव के कमरे में मिलते हैं और पढ़ते हैं , बाकी का आईडिया आप लोगों को लग गया होगा | इसके आलावा  तीनों  के मिलने की एक और ख़ुफ़िया जगह है |  और इस जगह पर मिलकर बैठने की ज़रुरत उसी लिए है जो नौवीं के लड़कों को अक्सर होती है |

अरे भावनाओं में बहकर आप भी ना जाने क्या क्या सोचने लगे | अरे लड़कों ने केवल दो कामों के लिए वो ख़ुफ़िया जगह बनायी है , एक तो पेपर में आने वाले साप्ताहिक "रंगायन" के इम्पोर्टेन्ट नोट्स इकट्ठे कर लें ( "रंगायन" का आईडिया आपको अगर नहीं है तो बता दूँ वो महिला सशक्तिकरण वाला अखबार है जिसमें  फोटो और कंटेंट दोनों में प्राथमिकता महिलाओं को दी जाती है ) | दूसरा काम है , बिजली के तारों और बल्बों से खुराफात | इसी ख़ुफ़िया जगह पर ही पिछली दीवाली तीनों को शानदार आईडिया आया था की क्यों ना पूरी कालोनी  की झालरों को आपस में जोड़कर ऐसे सिंक किया जाए की सारे झालरें एक साथ जलें  और बुझें | टेस्टिंग  भी इसी जगह की गयी | बस हाँ, पूरी कालोनी ने दिवाली दिए जलाकर मनाई , वो बात अलग है | मामला एको -फ्रेंडली  रहा |  तीनों के घरों के फ्यूज़ बल्ब यहाँ पाए जा सकते हैं जिनको दुबारा जलाकर थॉमस अल्वा एडिसन की आत्मा को ठंडक पहुंचाई जाती है और असफल होने पर , रंग बिरंगा पानी भरकर बल्बों को लटका दिया जाता है |

खैर , अब आते हैं की ये ख़ुफ़िया जगह है कहाँ | तो ये जगह है शिव के घर के ठीक सामने वाले "तालायमान" घर में | जिसकी छत रवि की छत से मिलती है और वहां पहुँचने का जरिया भी वही छत है | बिजली  का कनेक्शन भी तार के ज़रिये रवि के घर से पहुँचाया गया है |

इस जगह के खोजे जाने की भी एक छोटी सी कहानी है |  दरसल एक बार रवि और शिव ने मिलकर शेखू को चैलेन्ज दिया था की इस घर में घुसकर दिखाओ , रात में १२ बजे | शेखू जय बजरंगबली करता घुस गया, छत के रास्ते  | पीछे बाकी दोनों भी पहुँच गए | एक कमरा जो थोड़ा अलग सा पड़ता था , और  जिसकी खिड़की से केवल शिव की खिड़की दिखती थी, वो तीनो को पसंद आ गया , नाम दिया गया "प्रयोगशाला"   | बाकी जुगाड़ भी सेट कर लिए गए |

वर्तमान में ,  कमरे की दीवारों पर "रंगायन" के नोट्स चस्पा हैं | चित्रों को प्राथमिकता दी गयी है और सिर्फ उन्हीं से कमरा सुसज्जित है | लाखों के दिलों की धड़कन , "ममता कुलकर्णी" का एक बड़ा चित्र है | जिसे बीचों बीच जगह मिली है | बाकी दीवारों  पर या तो तार हैं या बल्ब |

तीनों खाना खाने के बाद अक्सर यहाँ मिलते हैं | क्यूंकि इस टाइम तीनों , ऑफिशियली पढ़ने की समय सीमा से बाहर  होते हैं |

*****
आज सुबह एक आदमी बहुत सारा पेंट और बाकी सामान खरीदने शेखू की दूकान पर आया , शेखू वहीँ था और पता कन्फर्म किया तो  रवि के घर के सामने वाला घर निकला है | कल  से काम शुरू होना है , कोई एक फैमिली शिफ्ट होने जा रही है | तीन लोग हैं , हस्बैंड - वाइफ और एक "लड़की" | कल वो लोग भी घर देखने आ  रहे हैं | 

शेखु का दिल लड़की सुनकर उछला तो है | पर "प्रयोगशाला" की सफाई ज्यादा ज़रूरी है | बेज्जती ख़राब होने का डर  है | 

दोपहर में ही रवि और शिव को इत्तिला कर दी गयी |  शाम को सफाई के लिए के लिए और प्रयोगशाला को अंतिम विदाई देने के लिए इकठ्ठा हुआ गया |  उस  वक़्त ना किसी को आना था , ना किसी को जाना | पर पता नहीं किस बात की हड़बड़ी मचाई गयी | सारे तार रवि के घर में , बल्ब उसी घर की छत पर फेंक दिए | नोट्स नोचकर पिछली  गली में फेंके गए | सारी  दीवारें साफ़ करके जब सेना रवि के  घर में राहत की सांस ले ही  थी , की तभी कॉमन ख़याल आया की ममता कुलकर्णी तो वहीँ रह गयीं |  अब लाइट बची नहीं थी नहीं तो अँधेरे में टटोलते टटोलते , ममता कुलकर्णी को भी उतारा गया और वापस कमरे में पहुँच कर रियलाइज़ हुआ की उनके कुछ विशेष "हिस्से" वहीँ कमरे में रह गए | पर अब वापस जाना किसी को ज़रूरी नहीं लगा | 

****

तीनों वापस छत  पर आ बैठे |  
शेखू  बोला " हो ना हो यहाँ अपने शिव की सेटिंग हो जाएगी " | 
"कैसे" आवाज़ में अजब सी असहिष्णुता थी और आवाज़ रवि की थी | 
"अबे मेरा अंदाज़ा है " शेखू बोले | 
"देखते हैं" रवि की आवाज़ में इसबार थोड़ी आह थी | 


ये हाल तब था , जबकि कड़की "है" के आलावा और कुछ पता भी नहीं था | उस घर के दरवाज़े पर लटके कुए ताले पर प्रेशर बहुत ज्यादा ही बढ़ चुका था | 

शेखू ने "किस" शब्द पर जोर देते हुए ये गाना गाया और शिव ब्लश करने लगा... 





मंगलवार, 20 मार्च 2018

तो कहानी शुरू होती है.... ( इश्क वाली कहानी भाग -१ )

शहर बहुत आसान सा था । आमतौर पर शहर आसान ही होते हैं , मुश्किल तो रहने वाले लोग उसे बना देते हैं । पर इस शहर के लोग आसान से ही थे , तो शहर भी आसान सा हो पड़ा था । शहर में एक कॉलोनी थी , मोहल्ले जैसी नहीं । बेफ़िक्री थोड़ी कम थी लोगों में इसलिए मोहल्ला नहीं था । मोहल्ले में बेफ़िक्री कुछ ज़्यादा हो जाती है । यहाँ नहीं थी ।

कॉलोनी में घरों के डिज़ाइन एक जैसे ही थे , एक सिमिट्री थी । जैसे घरों के दरवाज़े आमने सामने , मिली हुई छतें । कमरे , उनकी खिड़कियाँ एक दूसरे को देखती हुईं । कालोनी ज़्यादा पुरानी नहीं तो लोग कम थे । टाइम भी कम ही हुआ था तो लोगों ने मॉडिफ़िकेशन कम कराए थे । काफ़ी सारे घर अभी भी ख़ाली पड़े थे । घरों में ताले थे , जो मकानमालिकों या किराएदारों के इंतज़ार में थे और इंतज़ार करने के विश्वकीर्तिमानों को ध्वस्त करने की फ़िराक़ में थे । 

ज़माना भी 90 के दशक का शुरुआती दौर था ,  तो इंटर्नेट पढ़ी जाने वाली मैगज़ीन में पाया जाता था । एफ़॰एम॰ का दौर भी अभी नहीं आया था । कुछ घरों में ही केबल कनेक्शन था और आम राय ये थी कि पढ़ने लिखने वाले बच्चों के घर में केबल टीवी नहीं होनी चाहिए ,  पढ़ाई ख़राब हो जाती है । ज़्यादातर घरों में सहारा सिर्फ़ दूरदर्शन का था । रेडियो पर मीडीयम वेव और शॉर्ट वेव का रुतबा था ।

हाँ , विडीओ गेम ने दस्तक दे दी थी । पर उसका असर गली में  क्रिकेट खेलने वालों पर कम हुआ था । कह सकते हैं वो सारा कुछ था जो उस बचपन की निशानी था , जो घर के अंदर और बाहर बराबर बीता करता था । रहने वाले परिवारों में हर उम्र के बच्चे थे , कुछ बचपन में थे , कुछ जवान , कुछ जवानी की दहलीज़ पर जो ना बच्चों में गिने जाते और ना बड़ों में । ऐसे ही तीन नमूने इस कहानी के मुख्य बालक / पुरुष पात्र हैं ।

पढ़ाई लिखाई वैसे तो अपने यहाँ काम मानी नहीं जाती बल्कि उसे ज़िंदगी जीने के बाद दूसरे नम्बर का धर्म माना जाता है ।इन तीनों का भी मुख्य काम यही  था , ऐसा विचार उनके पैरेंट्स का तो था ही कम से कम ।बाक़ी कॉलोनी वालों के विचार इतर  थे जो बेवजह नहीं थे । कारणों की चर्चा आएगी बाद में । फ़िलहाल पात्रों  पर आते हैं । तीनों में ऐसा कुछ नहीं की नोटिस किया जाए पर हरकतें ऐसी की इग्नोर भी नहीं कर सकते । चेहरे से अगर नूर नहीं बरसता तो हैवानियत भी नहीं टपकती थी । दोस्त तीनों इतने गहरे की काफ़ी का दाग़ उतना गहरा ना हो ।

बंद घरों में भूत होने की कहानियाँ बनाने-सुनाने की उम्र पार हो गयी थी । फ़िल्मी गानों को सुनकर तीनों को लगता था कि कन्या नामक एंटिटी का जीवन में प्रवेश ज़रूरी है पर ऐसा कुछ हो नहीं पा रहा था । अव्वल तीनों ब्वायज़ स्कूल में पढ़ते , दूसरा कॉलोनी  के अवेलेबल संसाधन इन्हें घर की मुर्ग़ी दाल बराबर लगते थे, तीसरा इन उपलब्ध पॉसिबल प्रॉस्पेक्ट में से काफ़ी ने इन्हें राखी के बंधन में बाँध लिया था । साथ ही दूसरे मोहल्ले और कॉलोनी के लड़कों से इनकी सुरक्षा का अनकहा ज़िम्मा भी इनके मज़बूत कंधों पर दे दिया गया था या इन्होंने ले रखा था । अब चूँकि इस तरह के ज़िम्मेदार अन्य मोहल्ले और कॉलोनी में भी  थे इसलिए और कहीं जहाँ भी इन्होंने दाल का कुकर चढ़ाया कोई ना  कोई सीटी निकाल भागा । 

दिल दुखता पर टूटता नहीं । किसी रोज़ विविध भारती पर गुलज़ार का गाना सुन लिया था , बस उस दिन से तीनो छत पर शाम को अक्सर यही गुनगुनाते पाए जाते :



सारी उम्मीद उन लटकते तालों पर थी अब ....


( दास्ताँ शुरू होना बाक़ी है ... )

— देवांशु 

सोमवार, 8 जुलाई 2013

तुमि तो ठेहेरे परदेसी , साथि क्या निभावोगे…

“यार ज़िंदगी से कलर चला गया |”

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नौसिखिया दारूबाजों को दारू के अलावा दो और चीज़ों की सख्त आवश्यकता होती है : घर से दूरी और एकांत | बड़े शहरों में एकांत के बिना भी काम चल जाता है, पर छोटे शहरों में इसकी आवश्यकता ऐसी है जैसे सरकार को सीबीआई की | और अगर इन दोनो के साथ ताज़ा-ताज़ा दिल टूटा हो तो क्या कहना, सोने पर सुहागा | 

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बात तब की है जब हम कॉलेज में नए-नए शिफ्ट हुए थे, और बात-बेबात मौका निकाल कर घर जाया करते थे | महल्ले में उस समय प्यार का रोग भर भर के चढा था, हर कोई इश्क में बावरा हुआ पड़ा था | हमारे एक बचपन के दोस्त थे जो पांचवी क्लास तक हमारे साथ पढ़े थे और हमारे घर से ३ गली छोड़ कर रहते थे , नमन |


नमन

घर  का नाम : बड़कन्ने, इस्कूल का : नमन त्रिवेदी | वो अपनी हृष्ट-पुष्ट काया से सिर्फ बब्बू दादा को ही टक्कर दे सकते थे | बचपने में ही महल्ले के ही किसी जीव-वैज्ञानिक ने खबर उड़ा दी थी, “केंचुआ" आगे पीछे दोनों तरफ से एक जैसा चल सकता है और नमन का नाम भी आगे-पीछे से एक जैसा था तो महाशय का महल्ले का नाम रख दिया गया , “केंचुआ" | उनकी बाडी भी नाम को पूरा समर्थन देती थी | लचर गर्दन, जो बोलते बोलते किसी भी तरफ झुक सकती थी, जैसे थाली पर के बैंगन | मिमियाती आवाज़, बकरी को भी मत दे दे और बहती नाक, जिसके कुछ कतरे गालों के अंत तक पाए जाते थे |


पर बड़े होकर ऐसा कुछ ना रहा | हमारे बी टेक का पहला साल था, श्रीमान केंचुआ जी , बी ए - दूसरे साल में थे | अब तक उनका बाकी शरीर तो जस का तस रहा था, तोंद ने बोरे का रूप लेना शुरू कर दिया था |


हमरे शहर में एक मैनरोड है, जो एक पंचराहे से शुरू होकर रेलवे क्रोसिंग तक जाती है | वहाँ अभी तो ओवरब्रिज बन रहा है ( जिसका जिक्र फिल्म साहब बीवी और गैंगस्टर में आया है) , उस समय नहीं बन रहा था | केंचुआ अपने एक दोस्त के साथ , करीब शाम को सात बजे मैनरोड पर ही भिंटा गए | अब चूँकि वो हमारे इस्कूल के दोस्त थे तो उनका संबोधन वैसा ही रहा “अरे भईया दिवान्सू, कब आयेओ” | हमने बताया कल ही आये हैं, १ हफ्ता रुकेंगे |


उन्होंने कुछ इशारा किया अपने दोस्त को और बोले “आज बड़े सही दिन मिले हो भईया तुम, चलो आज हमरे साथ चलो” | अपनी बाइक में ट्रिपलिंग करते हुए वो हमें उठा के चल दिए | रेलवे क्रोस्सिंग से उनकी बाइक पटरी के सहारे-सहारे बाएं मुड़ ली और करीब आधे किलोमीटर दूर जाकर रुकी | सबसे पहले हम कूदे, बाद में उनके दोस्त फिर केंचुआ महाशय |


वहाँ पास में एक छोटा खँडहर था , रेलवे का ही कोई “परित्यक्त" केबिन | एकांत आ गया था | उसके अंदर “टोर्च" वाले मोबाइल का इस्तेमाल करके रोशनी की गयी | इसके बाद उनके दोस्त ने बैग से “रायल स्टैग" का खम्भा निकाल लिया , साथ में प्लास्टिक के गिलास और एक थैली  जिसमें सूखे मेवे भरे हुए थे  | पानी की बोतलें भी थीं | उस समय हम “मैं कोलेज पढ़ने आया हूँ, सिर्फ पढ़ने" के सिद्धांत का पालन करते थे तो केवल दो पेग बने | फटाफट केंचुआ और उनके दोस्त ने दो दो पेग अंदर ढकोले | इसके बाद इंट्रो शुरू हुआ |


“अरे हम तो बतैबे नहीं किये,  ई हमार दोस्त है , चिलगोजा , ससुरे की बाप की सूखे मेवा की दुकान है , यही लिए सारेक् ई नाम पड़ा" अपने दोस्त को इंट्रोड्यूस करते हुए केंचुआ महाशय बोले |
“और ई हैं हमरे दोस्त दिवान्सू, इनका पढेक बड़ी खुजली है बचपन सेने, अबहीं दिल्ली में पढ़ी रहे हैं, सार ना जाने का करिहें पढ़ी के” हमारा इंट्रोडकशन भी दे दिया गया |


अब बारी चिलगोजा जी के बोलने की थी “भईया, आप तो दिल्ली मा कालेज मा पढ़त हो , वहन तो बहुतै सही कन्यायें पढ़े आती हुइहें” | हम बस केवल मुस्किया दिए | वो आगे बढ़े  “कोई पटाय पायेओ की नाहीं" | अब बारी हमारे शर्माने की थी | एक इसी मैदान में तो चारों खाने चित्त थे हम |


“अरे ई ससुरे सीधे लरिका हैं" | तीसरे पेग के बाद आयी झुमाई के साथ केंचुआ बोले |

“पर ई सार केंचुआ, यहु नाय माना, तुम्हरे महल्ले की एक लड़की का प्रपोज़ मार दिहिस"  चिलगोजा ने हिकारत भरी नज़रों से केंचुआ को देखते हुए हमें संबोधित किया | अब ये खबर थी | महल्ले की सारी कंडीडेट लड़कियों की तस्वीरें ज़हन में घूमने लगीं , गेस करने लगे कौन होगी वो बदनसीब, हालांकि डाटा पुराना था हमारा  | अब तक केंचुआ की सुबकाई शुरू हो गयी थी | एक और पेग अंदर गया |  और बोले “यार दुई गली छोड़ के पहले  मकान वाली, मास्टर की छोटी बिटिया” |  


चिलगोजे ने बड़े ओर का ठहाका लगाया | हम फोटो याद करने में लगे थे , बहुत मेहनत से भी नहीं याद आयी |
श्रीमान केंचुआ जी अब दहाड़ मार कर रोने लगे थे | बोले : “यार ज़िंदगी से कलर चला गया |”


“तौ कलर हम लाये देइत है” ये कहते हुए चिलगोजा ने अपने बैग से एल चाइनीज़ पोर्टेबल कैसेट प्लयेर निकाला और ऑन किया | ऑन करते ही सबसे पहले , उसमे हर तरफ लाल-नीली बत्तियाँ जलीं और पलक झपकते ही खँडहर डिस्कोथेक में बदल गया |  साथ में  अल्ताफ राजा की आवाज़ गूंजी “तुम तो ठहरे परदेसी, साथ क्या निभाओगे" | अल्ताफ राजा के गानों के ज़हर की तीव्रता उनके द्वारा बीच बीच में छोड़े गए शेरों से और बढ़ जाती है | वही हुआ , मेरा केंचुआ की स्टोरी में कोई इंटरेस्ट नहीं बचा |


“यार, बहुतै मतलब वाला गाना है" केंचुआ जी ने जिव्हा खोली और हमारी तरफ देखा | हम फटाफट कट लेने वाले मोड में थे | बोले “तुम नाय समझियो" | हम चिलगोजा भाई की तरफ इशारा करके पूछे कि माजरा क्या है | उन्होंने बताया |


“इन्हैक किलास मा पढ़त है मास्टर केर बिटिया, ई गधऊ, लब-लेटर लिख दिहिन और वहिकी कापी मा रखि दिहिन | ऊ देखिस नाही, वहिकी कापी वहिकी अम्मा ठीक से लगाती रहें की इनका परचा गिरि परा |”

केंचुआ ने गम-गलत करने के मकसद से एक पेग और अंदर किया और कराहे “हाए"|


“अम्मा तो ब्लैक लेटर बफैलो हैं, चिट्ठी पढ़े वहिके बड़े भईया  | पहले तो वहे सुजाय दी गयीं | फिर जब पता चला उधर से कुछ नाय है तब ई पकरे गए |”


“अबे तो कैसे पता चला कि लेटर इन्होने लिखा है” हमने समझने की कोशिश की | केंचुआ की एक और आह निकली | चिलगोजा आगे बढ़े |


“इ ससुर लेटर के आखिरी मा हिन्दी के बिद्वान बनी गए रहे लिखी दिहिन , तुम्हें नमन करता है तुम्हारा नमन | वहिके बाद इनकी पहिले हुई ढंुढाइ , फिर हुई धुनाई |


अल्ताफ राजा कोई एक शेर पढके आगे बढ़े | केंचुआ का रोना अब थम गया था बोले “ऊ शुकला मास्टर , वहू शाम का चठिया लगाये ब्रह्मा-विष्नू कर रहा रहे , मारे वाले ५-७ और बढ़ी गए | और तो और पापाओ का बताय दिहिस | वहो मारिन |”


इस बीच खम्बा खतम हो चुका था | मामला समिट रहा था | हमने घावों को कुरेदते हुए पता किया “ फिर कन्या ने जवाब दिया?” | केंचुआ तमतमा गए बोले “अगलिहे दिन से वहिके दोनों भाई ऊका कालेज ले-छोड़े आये लगे, अभी उसका जवाब आना बाकी है” |


माहौल में दर्द बढ़ गया था | हमने बोला इस हालत में घर कैसे जाओगे | तो पता चला चिलगोजे के घर में सब लोग बाहर गए हैं , केंचुआ आज उसी के यहाँ रुकेंगे, अकेले चिलगोजे को डर ना लगे कहीं | हमने चिलगोजे का मुआयना किया और पाया कि इससे वीभत्स प्राणी मैंने शायद ही कहीं देखा हैं, इसे किस्से डर लगेगा | खैर हमने दोनों को उनके घर छोड़ा और वापस अपने घर की ओर चल दिए | पीछे से उन दोनों के रेंकने की आवाज़ आ रही थी …

तुमि तो ठेहेरे परदेसी , साथि क्या निभावोगे…
(हालांकि मास्टर और उनका पूरा खानदान, कम से कम पिछले ३० साल से महल्ले में रह रहा था )

#जाके पैर ना फटी बिवाई, सो का जाने पीर पराई |

-- देवांशु