मंगलवार, 30 अगस्त 2011

रश्मिरथी : भूमिका से

राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह “दिनकर” जी  की वैसे तो कई महान कृतियाँ हैं परन्तु “रश्मिरथी” और “कुरुक्षेत्र” मेरी सबसे पसंदीदा रचनाओं में से एक है | अभी कुछ दिनों पहले एक बार फिर पढना शुरू किया है “रश्मिरथी” को | आज उसी की भूमिका. जो दिनकर जी ने स्वयं लिखी है , के वे अंश जो मुझे सबसे अभिक प्रिय लगे | भूमिका पूरी ही प्रशंशनीय है और इसके आलावा मेरा कहना तो सूरज को दिए दिखने जैसा होगा |
अपने काव्य कि भूमिका में “दिनकर" जी ने सन १९५० के आस-पास कुछ ऐसी बातें लिखी हैं जो अब जाके हमारे समझ आनी शुरू हुई हैं शायद…और वो भी पूरी नहीं..
काव्य लिखने के कारणों के बारे में भी दिनकर जी ने चर्चा कि है भूमिका में
बात यह है कि कुरुक्षेत्र कि रचना कर चुकने के बाद ही मुझमे यह भाव जगा कि मैं कोई ऐसा काव्य लिखूं जिसमे केवल विचारोत्तेजकता ही नहीं, कुछ कथा-संवाद और वर्णन का भी महात्म्य हो |
साथ ही विदेशों में हो रही काव्य रचनाओं से पडने वाले हिंदी साहित्य पे प्रभाव से दिनकर जी काफी आहत दिखे हैं
परम्परा केवल वही मुख्य नहीं है जिसकी रचना बहार हो रही है, कुछ वह भी प्रधान है जो हमें अपने पुरखों से विरासत में मिली है, जो निखिल भूमंडल के साहित्य के बीच हमारे अपने साहित्य की विशेषता है”
पर वो कविता के प्रारूप बदलने का सारा कारण इसे ही नहीं बताते हीं वे लिखते हैं..
विशिष॒टीकरण की प्रक्रिया में लीन होते होते कविता केवल चित्र, चिंतन और विरल संगीत के धरातल पर जा अटकी है"
कर्ण को लेकर साहित्य रचना का कारण स्वयं उन्होंने ही सामाजिक समता के लिए किये गए प्रयास की संज्ञा दी है | कभी मैंने भी पढ़ा था कि देश एक जंजीर कि तरह होता है और जंजीर कि मजबूती उसकी सबसे कमज़ोर कड़ी निर्धारित करती है| 
यह युग दलितों और उपेक्षितों के उद्धार का युग है | अतएव यह स्वाभाविक है कि राष्ट्र-भारती के जागरूक कवियों का ध्यान उस चरित कि ओर ले जाया जाये जो हजारों वर्षों से हमारे सामने उपेक्षित एवं कलंकित मानवता का मूल प्रतीक बनकर खड़ा है|”
सामाजिक समता के महत्त्व को उन्होंने तब जाना था| और ये भी माना था की देश कि उन्नति के मूलमंत्रों में से ये एक है|  एक नए समाज कि कल्पना कि थी और इन्ही प्रयासों का फल कुछ यूँ बयां कर दिया है
“ आगे मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता है, उस पद का नहीं, जो उसके माता-पिता या वंश की देन है| इसी प्रकार, व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है वो उसे मिलकर रहेगा, यहाँ तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे|”

कर्ण को समझना अपने आप में एक युगपुरुष को समझाने जैसा है| दानवीरता और पराक्रम में वो बाकी कुंती पुत्रों कि तरह था और कहीं कहीं तो उनसे बढ़कर था|  पर क्या केवल ये गुण उसे दुर्योधन का साथ देने के लिए माफ कर देंगे| ऐसा भी संभव नहीं है शायद | इसी से जुडी एक बड़ी अच्छी चर्चा ऑरकुट कि एक पोस्ट में पढ़ी जा सकती है|
कुछ भी हो पर कर्ण महान था इसमे कोई भी दो राय नहीं हो सकती| रश्मिरथी का अंत भी कुछ ऐसे ही उदगार से हुआ है…
“समझ कर द्रोण मन में भक्ति भरिये,
पितामह कि तरह सम्मान करिये|
मनुजता का नया नेता उठा है,
जगत से ज्योति का जेता उठा है|”
नमन दोनों को, उस कर्ण जैसे चरित्र को और दिनकर जैसे कवि को…
---देवांशु