बुधवार, 30 नवंबर 2011

साल्ट लेक सिटी ट्रिप…

नमस्ते!!!
हाँ तो जेंटललेडीज़ एंड मेन !!!

Happy belated thanksgiving!!!!

ये थैंक्सगिविंग बड़ा खूंखार त्यौहार है भाई!!!  नवम्बर के चौथे गुरूवार को अमरीका में ये मनाया जाता है | और अगले दिन हर चीज़ पे इतनी छूट मिलती है कि कोहराम मच जाता है हर तरफ…मजबूरन इसे काला शुक्रवार घोषित करना पड़ा है (हमें तो यही कारण लगता है बाकी राम जाने काहे बोलते हैं इसे कलुट्टा शुक्कर)…

सबसे गलत बात तो तब होती है जब अगले सोमवार सब बैठ के डिस्कस करते हैं कि “भईया तुम का खरीदे" और अगर आपने कुछ नहीं खरीदा तो इससे बड़ा कोई पाप नहीं हो सकता | कुछ कुछ लोग तो ऐसे ऐसे सामान खरीद डालते हैं कि बस पूंछो ना…जैसे शेविंग किट पे ९०% डिस्काउंट देखते ही एक महिला ने १५-२० ताबड़-तोड़ किट खरीद डाले…आजकल एक अदद दाढ़ी-मूंछ वाले ब्वायफ्रेंड की तलाश में हैं…लड़कियों के सैंडल पे ४०% का डिस्काउंट था एक महाशय १८ जोड़े खरीद लाए….अब उनकी वाइफ तो इंडिया में हैं तो सुबह शाम अपने रूम-मेट्स से उन्ही सैंडलों से मार खाते हैं ( बड़ा घमंड है उन्हें अपने ऊपर, कि साहब लड़कियों   के सैंडल खा रहे हैं)|

ऊलज़लूल शौपिंग के आलावा जो दूसरा काम जनता करती है उसे “घूमना" कहते हैं..ये भी पाप-पुन्य कि बात हो जाती हैं…जैसे आपने कहा कि मै कहीं नहीं गया था घूमने, हर क्यूबिकल से आवाज़ आएगी…काहे नहीं गए? तबियत खराब हो तो भी जाना चाहिए…अभी नहीं गए तो कब जाओगे अब?…पैसे बचा रहे हो क्या? फिर आपको थोड़ी देर में कुछ बातें सुनायी देंगी “बेचारा कहीं जा नहीं पाया…कितना बुरा हुआ ना…इससे तो मेरे को बोलता..भगवान भी क्या क्या दिन दिखाता है…चार दिन घर में अकेला रहा होगा"

इस ज़लालत भरी जिंदगी से बचने के लिए करीबन १ महीने पहले से हम सबने कहीं जाने का सोच रखा था…पर जैसा हमेशा होता है…मन की उड़ान हमें जाने कहाँ कहाँ ले गयी…और हम ३ दिन पहले तक जगह भी  डिसाइड नहीं कर पाए… फाइनली डिसाइड हुआ कि साल्ट लेक सिटी चलते हैं| २ दिन के अंदर सिटी घूमने के पास, रहने के लिए होटल और आने जाने के लिए कार का जुगाड़ किया गया| कुल मिला के पौने तीन ड्राइवर थे …१ हरी भाई, १ दीपक दा, १/२ आशीष भाई  (इन्हें अभी-अभी लाइसेंस मिला है) और १/४ मैं (मेरे पास लर्निंग लाइसेंस है)…आशीष भाई हमें डिस्काउंट में कार दिलवा सकते थे तो उन्हें पूरे ड्राइवर का सम्मान देना पड़ा (जिसका हमें काफी अफ़सोस हुआ बाद में ) और टोटल ड्राईवर हो गए…सवा तीन…इसके अलावा एक इंसान और थे हमारे साथ देबाशीष …जिनका काम जीपीएस को संभालना था….

आगे कहानी गंभीर हो गयी….2011-11-24 07.54.15

पहला पड़ाव था ग्लेन कैन्यन डैम…जहाँ हमलोग तय समय से कुछ ढाई घंटे पहले पहुँच गए..सुबह का साढ़े तीन बज रहा था…अगले ३ घंटे कार में सोके बिताए गए…और सुबह की पहली किरन के साथ हम पहुंचे डैम पे…कोलाराडो नदी पे बना ये बाँध साठ के दशक  में बन के तैयार हुआ था..जो नवाजो जनजाति से जगह लेकर बनाया गया था| ऐसा लगता है कि ये इंसान ने नहीं बनाया है | दोनों सिरे इस तरह से खोये हुए हैं कंकरीट कि दीवारों में जैसे ये मिलने के लिए ही बने थे |

हरी भाई अपने आदत के हिसाब से फोटो खिंचवाने में लगे हुए थे…वो आपको आवाज़ देकर बुलाएँगे कि आओ तुम्हारी एक फोटो लेते हैं, ये जगह बढ़िया है| उसके बाद वो आपसे दनादन ३-४ फोटो खिचवा लेंगे अपनी | और आप नाराज़ ना हो जाएँ तो जाते जाते एक फोटो और ले लेंगे आपकी |

डैम देखने के बाद अगली लोकेशन थी एंटीलोप कैन्यन ..जहाँ एक टूर गाइड के साथ कैन्यन घूमा गया…मैंने कभी सोचा नहीं था कि कोई जगह इतनी भी खूबसूरत हो सकती है….बलुए पत्थरों को कोलाराडो नदी के तेज बहाव ने काट कर इसे बनाया है…किसी मूर्तिकार कि सदियों की मेहनत सी दिखती है…बड़े करीने से एक एक कोने को तराश  के उसे ना जाने क्या क्या रूप दे दिया है…और जब सूरज ठीक ऊपर चमकता है तो ये पूरी जगह उजाले से भर जाती है| हम सूरज कि रोशनी तो नहीं देख पाए क्यूंकि सूरज देवता तो बादलों के साथ छुप्पन छुप्पाई का खेल खेल रहे थे…पर जब भी मेहरबान हुए, झलक दिखा गए रोशनी से भरे महल की..गाइड ने हमें बताया कि १९३१ तक ये जगह मालूम नहीं थी.. जनजाती के लोग ही यहाँ रहते थे..जबसे इसका पता चला, लोग यहाँ आने लगे बड़ी संख्या में | और लोगों ने आके दीवारों पे अपने प्यार का इज़हार भी शुरू कर दिया (ठीक वैसा ही जैसे हमारे यहाँ होता है) | १९९७ में नदी में अचानक बाढ़ आ गयी और ११ लोग मारे गए तबसे यहाँ बिना गाइड के जाना मना है…बारिश के दिनों में ये पानी से भरा रहता है…आखिरी बार ये २००२ में पूरा पानी में डूबा था..हर साल आंशिक रूप से भर जाता है ये ..पानी की धार दीवारों पे अपने फुटप्रिंट छोड़ के जाती है हर साल…
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१८० मिलियन बरस पुराना ये कुदरत का नायाब तोहफा…ना जाने कितने उतार चढ़ाव देख चुका है…आज भी इसके आस पास नवाजो जनजाति रहती है..इसीलिए हमें इसके ऊपर जाने से मना कर दिया हमारे गाइड ने…अदभुत था यहाँ आना …
यहाँ से हमारा अगला पड़ाव साल्ट लेक सिटी में हमारा होटल ही था…पूरे ७ घंटे की ड्राइव थी…जो खाते पीते, गाने गाते गुजर गयी…रास्ता पूरी तरह से सुंदरता के आगोश में डूबा हुआ रहा…कुछ झलकियाँ..
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होटल पहुंचते-पहुंचते सर में हल्का हल्का दर्द सा होने लगा था..जो नहाने के साथ ही काफूर हो गया…रात का ९ बज रहा था…एक भारतीय खाने की जगह ढूंढी गयी…छक के खाया गया खाना…और वापस आके नींद के अलावा हम सबको और कुछ ना सूझा…
अगले दिन सुबह सुबह नाश्ता कर हम पहुंचे ओलिम्पिक ट्रेनिंग क्लब ..यहाँ हम गलती से पहुंचे थे..पर जगह बढ़िया निकली…कुल ३-४ घंटे यहाँ बिताए…आइस स्केटिंग की…आशीष के अलावा किसी को स्केटिंग नहीं आती थी…मैंने जनता में जोश भरने के लिए बोला “गिरने से मत डरो..गिरते भी वहीँ हैं जो कोशिश करते हैं" इसके बाद लोगो ने मेरे गिरने की काफी सारी फोटो ले डाली…
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पर ऐसा नहीं है कि मै केवल गिरता रहा…ये विडियो बानगी है इस बात की..
इसके बाद नेक्स्ट डेस्टिनेशन था स्नोबर्ड….जहाँ बर्फबारी हो रही थी…मैंने अपनी जिंदगी में कभी स्नो फाल नहीं देखा था…रास्ता बर्फ की चादर से ढका हुआ था..”कतिया करूं” गाने के लोकेशन जैसी…और जैसे ही हम वहाँ पहुंचे हम सब के अंदर का छुपा हुआ शैतान सामने आ गया…फिर तो उधम मचा दी…जगह भरी थी बर्फ से…बात हुई कि यहाँ पे टी-शर्ट में फोटो खिचवाओ तो जाने…बस फिर क्या था..पिक ली गयी …२-३ घंटे यहाँ उछल-कूद हुई….
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लौटने का मन तो नहीं कर रहा था..पर क्या करें आना तो था वापस होटल…शाम हो रही थी…मन कर रहा था रस्ते में कहीं चाय, समोसे, पकोड़े मिल जाएँ तो मजा आ जाए…पर कुछ खयाल, बस ख़याल ही रह जाते हैं…

इसके बाद भ्रमण किया गया डाउनटाऊन में नक्षत्रशाला का..जहाँ सिमुलेशन के ज़रिये ग्रीक मायोथोलोजी पे आधारित आस्ट्रिया की कहानी पता चली…उसके हाथों में एक तुला है जिसे तुला राशि का परिचायक कहा गया है…मैंने चौड़े होकर बोला “मैं भी तुला राशि का हूँ"..आशीष भाई का जवाब आया “तभी कुछ ना कुछ करने में तुले रहते हो…चुपचाप सनीमा देखो"…

रात हो रही थी…भूक लगने लगी…पंजाबी रेस्टोरेंट गए…यहाँ भी एक बार फिर हरी भाई सेंटर ऑफ आकर्षण बन गए..जब उन्होंने लस्सी आर्डर की…बोले" गिव में स्वीट लस्सी विध सम साल्ट"
वेटर भाई कुछ समझ नहीं पाए…होटल के मालिक को आना पड़ा..तब मामला सुलटा…

दिन खतम हुआ गहरी नींद में सोने के साथ..स्केटिंग में धडाधड गिरने कि वजह से हाथ पैर दर्द कर रहे थे…पर थकान सब पे भारी साबित हुई…नींद आ गयी…

अगले दिन एहसास हुआ कि आशीष को पूरे एक ड्राईवर का दर्ज़ा देना कितनी बड़ी गलती थी…हमें जहाँ जाना था ..उसके आस पास घंटे भर घुमाने के बाद उन्होंने हथियार डाल दिए कि भाई नहीं पहुंचा पाएंगे…हमने भी कहा “ए मेरे दिल कहीं और चल"|

इसके बाद एक एक करके हमने म्यूजियम, गार्डेन, चिड़ियाघर सब देख डाला|  हरी भाई बदस्तूर कायम थे अपनी फोटोग्राफी के साथ..शायद ही कोई कोना छोड़ा हो उन्होंने..
लौट के एक बार शाम को फिर डाउनटाऊन का चक्कर लगाया गया…इस बार साल्ट लेक का सबसे पुराना चर्च देखा…
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काफी लोग इकठ्ठा थे चर्च में, कुछ बच्चे भी थे जो संगीत बजा रहे थे…दिल खुश हो गया…मन किया कि कुछ माँगा जाये भगवान से…एक बार फिर आशीष भाई की ही आवाज़ सुनायी दी..
“भगवान बस जिंदा रखना…बाकी सब मै देख लूँगा”
रात का खाना एक अमेरिकन रेस्टोरेंट में खाया गया…इसके बाद होटल पहुंचे..आज थकान कम थी…पत्ते खेले गए…एक दूसरे कि टांग खींची गयी…कुछ पिक भी ली गयीं…देर रात तक जगा गया और इस डर के साथ कि कल सुबह लेट ना हो जाएँ, हम सो गए….बीच में हरी भाई ने हम सबका फीडबैक भी दिया….जो फिर कभी बताऊँगा….
सुबह उठ के पैकिंग की गयी और लौट पड़े हम सब अपने घर को…रास्ता फिर भी उतना ही खूबसूरत था…
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ट्रिप खतम हुई, हम शौपिंग से भी बच गए और ज़लालत से भी| पूरी ट्रिप का हिसाब किताब कर डाला गया है…सबको सबका हर्जा खर्चा बताके मामला रफादफा कर दिया गया है…पाई पाई जोड़ के हम लोग ऐश करके आये हैं…(यहाँ पाई का मान ३.१४१६ नहीं है Smile )
और जाते जाते कुछ पंक्तियाँ जो जेहन में उतर गयी हैं वो भी लिख डालता हूँ…
“लोग आते रहेंगे, लोग जाते रहेंगे,
कायम रहेगी बस वो खूबसूरती,
जो रौनक है तेरे दिल में भी, मेरे दिल में भी"
--देवांशु
(इस पोस्ट में लगी पिक्स किसी के भी कैमरे से ली गयीं हों, हौंसला हरी भाई का ही है)

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

फर्जी पोस्ट…

      (इस कहानी को कृपया कमजोर हृदय वाले लोग पढ़ने की कोशिश ना करें, बल्कि पूरा पढ़ें |  बाकी भी पूरा पढ़ सकते हैं| इस कहानी में ड्रामा है, ट्रेजडी है, कॉमेडी है, नाच-गाना भी जबरदस्ती में घुसेड़ दिया गया है…)

     हाँ तो दरसल मैं उनलोगों से मुखातिब हूँ जिन्होंने मेरे सामने वाली खिड़की में रहने वाले चाँद के टुकड़े में बेशुमार और बेहिसाब इंटरेस्ट दिखाया था |  तरह तरह के सवाल पूंछे गए हैं मुझसे…कौन है? कैसी है? फोटो-वोटो भेजो जरा हम भी देखें, अकेले मजे ले रहे हो…

    तो लो सब लोग पढ़ लो…(और ले लो मजा)

आगाज़ :  शाम का सात - आठ के बीच का कोई टाइम हुआ होगा…मैं अपने नए घर में शिफ्ट ही हुआ था | घर पहुंचा ही था कि एक दोस्त का फोन आ गया…बात करते-करते मैं अपने कमरे की खिडकी पे जा खड़ा हुआ| बस वहीँ…ठीक मेरी सामने की खिडकी से वो गुज़री…और महसूस ही नहीं हुआ कि दोस्त  की  आवाज़ फोन पे कब घुन्धली हो गयी..और कब उसने फोन काटा..दुबारा फिर फोन किया और ये कहते हुए फिर फोन काटा “कि जब होश में आ जाना तो खुद ही फोन कर लेना"…तब जाके समझ आया कि दुर्घटना हुई है…खैर!!!! रंग दे बसंती  के  डीजे का डायलोग याद आ गया “मेन्नू प्यार हो गया सि

एक बार फिर प्यार  :   पहली मुलाकात को भूलने में भी टाइम नहीं लगा| और वो इस लिए भी कि ऐसा पहली बार थोड़े ही हुआ है (अब कोई सतरा-अठरा सालों का तो हूँ नहीं, और कौन कहता है कि पहला प्यार नहीं भूलता, जिसको हर गली, हर मोड़ पे प्यार हो जाये, ना तो उसे पहला प्यार भूलते देर लगती है और ना आखिरी…)

हाँ तो दूसरी मुलाकात, वो तब हुई जब मै अपने रूम-मेट्स के साथ अपना लैटर बॉक्स देखने गया| वहाँ पे एक मोहतरमा खड़ी थी…”एक मोड़ आया मैं उत्थे दिल एक बार फिर छोड़ आया" | अबकी नींद तब टूटी जब आवाज़ आयी “तुम्हारा कोई लैटर नहीं आया है"|

जब तक हम चलते, मोहतरमा जा चुकी थी| वो भी अपना लैटर बॉक्स चेक करने ही आयी थीं| मैंने कहा “रुको!!! देखो कौन से नंबर का लैटर बॉक्स चेक कर रही थी" | घर का नंबर पता चलते ही चल पड़े घर पता करने | जब घर पहुंचे तो पता चला..

“जिसे ढूँढा गली-गली…वो घर के पिछवाड़े मिली”

ये वही खिडकी वाली मोहतरमा थी..”सच्चा" प्यार हो गया…तुरंत फेसबुक पे स्टेटस अपडेट किया…

“मेरे सामने वाली खिडकी में एक चाँद का टुकड़ा रहता है...”

अगले २-३ दिन :  सुबह (जल्दी जाग के) और शाम (ऑफिस से भाग के)  की चाय खिडकी पे पीना शुरू…बाद में गिटार  प्रैक्टिस भी खिडकी पे | पर ये तो अमरीका है…यहाँ पड़ोस के कमरे में भी बातें जीटाक पे होती हैं….मेरे प्यार और मेरे गिटार दोनों की आवाज़ उस तक कैसे पहुँचती…और मैं अपने “सच्चे" प्यार को कैसे भूल जाता…मैं जोर (अपना) शोर (गिटार का) से लगा रहा | रूममेट्स को हिदायत दे दी गयी…

“जैसे दिखे तुरंत सिग्नल देना (प्रीतम आन मिलो वाला, दरवाजे पे नाखून बजा के).. समझे!!!”

सिलसिला चलता रहा….

और आ गया वीकेंड :  वीकेंड का वेट वीकेंड खतम होते ही होने लगता है..

“ये मत सोचो वीकेंड में कितनी जिंदगी है…ये सोचो कि जिंदगी में कितने वीकेंड हैं"

पूरा वीकेंड कब गुज़रा..पता ही नहीं चला (कोई नयी बात बताओ) ना वो दिखी, ना खिडकी खुली, ना बत्ती जली (और मैं बन गया भीगी बिल्ली)

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अगला मंडे : जल्दी जागने की आदत के चलते फिर सुबह जा धमका मै खिडकी पे..बस आगे की कहानी ना पूंछो..उसकी खिडकी के आधे हिस्से में काली प्लास्टिक (she is not eco-friendly) और बाकी आधी खिडकी बंद…मैं बहुत खुश हुआ…”किसी ने तो मुझे नोटिस किया"

रूम-मेट्स बोले “वहशी दरिंदे…१० महीने से रोज खिडकी खुलती थी…३-४ दिन में बंद करा दी तूने"

करेंट स्टेटस : एक बार और दिखी है तब से..कार से उतरते हुए…बस्…लेकिन बाकी दुनिया ने पूंछ पूंछ के ढेर कर दिया है उसके बारे में…कसम से ये गाना बड़ा दुःख भरा है…

“ये खिडकी जो बंद रहती है"

वैधानिक चेतावनी : इस कहानी को पढ़ने के बाद अगर किसी ने दुबारा मेरे से चाँद या चाँद के टुकड़े के बारे में कुछ भी पूंछा तो I will sue them in American Court…हर्जे खर्चे के लिए वो खुद ज़िम्मेदार होंगे|  रवि और पंकज   इस बात का विशेष ध्यान रखें…

जाते जाते…एक दुखभरा गाना आप सबको सुनाये देता हूँ…आँसूं संभाल लीजियेगा…

और अगर विडियो और कहानी में लिंक ना समझ आया हो तो नीचे कमेन्ट में अपनी भड़ास निकाल सकते हैं…और अगर आ गया है समझ में, तो भी लिख दो जो मर्जी हो..आखिर पोस्ट फर्जी है ना..…. अल्लाह हाफ़िज़!!!!

--देवांशु