सोमवार, 26 मार्च 2012

आलू कोई मसाला नहीं होता….

पिछले दिनों हम बीमार पड़े…अरे हाँ वाकई में बीमार पड़े, एक दम धाँसू टाइप बीमार | पूरा बदन भट्टी की तरह गरमा गया | खुद ही आइडिया लगा लिए कि १०४ से कम क्या होगा | वैसे १०४ का आंकड़ा है बड़ा “ज़बर”| सुनते ही लोगो की “खटिया खड़ी और बिस्तरा गुल हो जाता है” |

बचपन में बीमार पड़ना बड़ा सुकून भरा होता था | ना सुबह उठके कोई नहाने को कहता, ना स्कूल जाने का बवाल , ना पढ़ने का टेंशन | कोई लफड़ा-लोचा ही नहीं लाइफ में | मम्मी देखभाल भी एकदम बढ़िया करती, छोटे भाई-बहन से भी दवाई का बहाना बना के चाय-पानी मंगाते रहते!!!!पर अब ज़माना बदल गया है | मम्मी-पापा इंडिया में है| उनको तो बता भी नहीं सकते, बता दो तो माता श्री घबड़ा जाती हैं, उन्ही को बुखार आ जाये ऐसी हालत में तो  |

हाँ तो बीमार पड़े, किसी से कुछ ना बोले | चुप-चाप चादर ताने सोते रहे | २-४ दोस्तों का फोन-फान आया उन्हें भी बता दिए “थोड़ा वीक फील कर रहे हैं बाद में कालियाते हैं" |

रूम-मेट्स ताड़ गए कि हम बीमारी का  बहाना बनाकर  लंबा सोने के चक्कर में हैं, फटाफट धाँसू सा सूप बना के गटकवा दिया, हालत थोड़ी दुरुस्त हुई | नींद बढ़िया आयी | 2011-12-09 20.12.47शाम को “आशीष” अपनी  धर्म-पत्नी के साथ  आये| साथ में नीम्बू की शिकंजी भी एक नयी “बोतल" में बैठ के आ गयी | शिकंजी निपटा डाली | ताश भी खेला | “नयी बोतल" हमने बड़े “एहसान" के साथ अपने पास रख ली | तबियत हो गयी “टनाटन” |  और निष्कर्ष ये निकला “पहले ताश खेल लेते तो दिनभर बीमार रहने से तो बच जाते” |

खैर कोई नहीं | रात हुई | बीमारी से उठते ही  हम किचेन में जा धमके | रूम-मेट्स खाना बना रहे थे और मसाले के साथ आलू भून रहे थे | मन में एक आइडिया आया कि आलू कोई मसाला तो नहीं होता| फिर इसे काहे मसाले में मिक्स किया जाये |

हम किचेन से भाग के अपनी डायरी उठा लिए | इतनी धाँसू लाइन मिलते ही एक “कालजयी" कविता लिखने की शुरुआत कर दी | और जैसा कि आपको पता ही है कि हम सारी पोस्ट बेकार में लिखते हैं | एक मात्र उद्देश्य होता है कि लोगो का खून  पिया जाये, तो हम ये अपनी कविता भी आपको पढने पर मजबूर कर रहे हैं| कविता के बोल वही हैं, “मटर एक सब्जी होती है , आलू कोई मसाला नहीं होता" | (मटर हमारी पसंदीदा है , हर सब्जी में घुसेड़ देने का स्कोप देखते रहते हैं, कविता में भी मौका देख के घुसेड़ दे रहे हैं, आखिर स्वाद का मामला है) .. हाँ तो सुनिए “कालजयी" कविता… और कविता कि हर लाइन का एक उद्देश्य भी है वो भी बताये बिना हम नहीं मानेंगे…

सबसे पहले घोटाला-फ़ोटाला के लिए :
क्यूँ गरियाते हो अपनी “करेंट" “गवर्मेंट”को, किस सरकार में घोटाला नहीं होता |
मटर एक सब्जी होती है, आलू कोई मसाला नहीं होता |   (वाह वाह)


शोपिंग मॉल की शौपिंग से परेशान पति-देव की करुण आवाज़ में:
क्यूँ जाती हो लुटने शोपिंग मॉल में , पैसे बचाने में कोई गड़बड़-झाला नहीं होता|
मटर एक सब्जी होती है, आलू कोई मसाला नहीं होता | (फिर से वाह वाह)


और जो लोग कोई काम करने से पहले बहुत सोचते हैं, कि सही क्या है गलत क्या , उनके लिए:
फूंको कम, कदम रखो ज्यादा, छुपा हुआ हर कहीं गहरा नाला नहीं होता|
मटर एक सब्जी होती है, आलू कोई मसाला नहीं होता | (वाह वाह वाह वाह)



और जो लोग इस बात से खुश हैं कि मेरे यहाँ बिल ना भरने कि वजह से बत्ती गुल है |  बिजली की कटौती हुई तो हम सब बराबर होंगे, उनके लिए :
खुश मत हो कि मेरे यहाँ बत्ती गुल है,  बिन ढिबरी शाम तुम्हारे यहाँ भी उजाला नहीं होता|
मटर एक सब्जी होती है, आलू कोई मसाला नहीं होता | (केवल वाह वाह)


अब एक सटायर:
गरीब कभी कौर को “बाईट” नहीं कहते, अमीरों का कौर कभी “निवाला” नहीं होता|
मटर एक सब्जी होती है, आलू कोई मसाला नहीं होता |  (सटायर कन्फ्यूज है, नो वाह वाह)


सब बोलते हैं दीवाली में आजकल मजा नहीं आता, कारण यहाँ है :
होली जो मनाते खुशी के रंग से , तो दिवाली में किसी का दिवाला नहीं होता |
मटर एक सब्जी होती है, आलू कोई मसाला नहीं होता | (वाह वाह रिटर्न्स)


सारे कवि जो हैं चाँद को प्यार का सूचक मनाते हैं, सूरज को पूंछ ही नहीं रहा:
सूरज को चाहे बिलकुल ना पूंछो, चाँद में बिन उसके उजाला नहीं होता |
मटर एक सब्जी होती है, आलू कोई मसाला नहीं होता | (सुभान-अल्लाह)


और अपनी इसी “कालजयी" कविता के बारे में:
ये कविता पढ़ना माना एक जुर्म है, पर इस जुर्म में किसी का मुंह काला नहीं होता | (डोंट वरी)
मटर एक सब्जी होती है, आलू कोई मसाला नहीं होता | (हाय बस जान ही ले लो अब तो )


****

हाँ तो ये तो थी हमारी “कालजयी” कविता | आप तो बोलोगे नहीं इसीलिए खुद ही वाह वाह कर लिए | कविता को कालजयी नाम देने का आइडिया हमें अपने पसंदीदा लेखक  अनूप शुक्ला जी की एक पोस्ट से आया |  कविता लिखने के बाद हमने अपने २-४ ब्लॉगर दोस्तों को ऑनलाइन पकड़ा और विडियो चैट में उन्हें इसका काव्यपाठ भी सुनाया, अपनी “मधुर" आवाज़ में | नाम ना बताने कि  शर्त  पे उन सबने इस कविता की बहुत तारीफ़ की, और हमें पोस्ट करने के लिए प्रेरित भी किया |

देखा जाये तो लाइन बड़ी मौजू टाइप है “आलू कोई मसाला नहीं होता” , आप भी मेरी तरह कोई एक शानदार कविता लिख सकते हो…हमें ज़रूर सुनाना |
मैंने इस कविता को राग-मल्हार में गाया, लोगों की आँखों से आंसुओं की बारिश हो गयी  | वैसे आप क्या कहते हो की किस राग में इसे गाना चाहिए!!!!
बोलो बोलो टेल टेल….
(फोटो में दिखाए गए पकोड़ो में आलू भी है, इसलिए उसे बे-फालतू ना समझा जाये )
--देवांशु

सोमवार, 12 मार्च 2012

हाँ!!!वही देश, जहाँ गंगा बहा करती थी…


बचपन में देखी थी ये फिल्म, “जिस देश में गंगा बहती है", तब इतना समझ नहीं आया था कुछ | ५-६ साल पहले एक बार और देखी | फिल्म की कहानी तब समझ आयी |

फिल्म का नायक “राजू" एक सीधा, सादा और सच्चा इंसान है| एक दिन डाकू उसे पुलिसवाला समझ के उठा ले गए हैं, पर जल्द ही उन्हें अपनी गलती का पता चलता है | इस बीच राजू अपने व्यवहार से पूरे गिरोह को प्रभावित करता है| और एक दिन बड़े उतार चढाव के बाद पूरा गिरोह आत्मसमर्पण कर देता है पुलिस के सामने|

१९६० में आयी ये फिल्म काफ़ी पसंद की गयी थी| राजकपूर ने अक्सर इस तरह के किरदार किये हैं जिसमे एक आम आदमी की छाप दिखाई देती है | imageफिल्म उनके अभिनय के लिए भी याद की जाती है और संगीत का पक्ष भी कॉफी मजबूत है |

और फिर आती है २०१२ की “पान सिंह तोमर" | जब “जिस देश में गंगा बहती है” प्रदर्शित हुई होगी उस वक्त "पान सिंह” राष्ट्रीय खेलों में प्रतिभाग कर रहा था और नेशनल रिकार्ड बना रहा था |पर उसकी ज़िंदगी भी उस फिल्म के किरदारों के बीच से होकर गुज़री , बस उसका अंत कुछ अलग हुआ | या ये कहें कि उसका अंत वही हुआ जो हो सकता था|

पान सिंह तोमर" फिल्म की पृष्ठभूमि लगभग वही है जो “जिस देश में गंगा बहती है” की है | पर नायकत्व में फर्क है, उसकी परिस्थितियों में फर्क है |  हालाँकि सोचने का तरीका बहुत अलग नहीं है, एक  सा ही है कमोबेश|

राजू सबसे शांति से रहने की बात करता है, पान सिंह वही कोशिश अपनी ज़िंदगी में करता है | पर लाख कोशिश करने के बाद भी  हार जाता है | जिस पुलिस के सामने राजू पूरे गिरोह के हथियार डलवाता है वही पुलिस “पान सिंह"  को हथियार उठाने पर मजबूर कर देती है |

राजू गैंग के सरगना की मदद करता है तो सरगना उसे अपने सर आँखों पर बिठाता है | वहीं दूसरी ओर देश के लिए खेलने वाले “पान सिंह", अपने बेटे पर हुए अत्याचार की रिपोर्ट भी नहीं लिखवा पाता | उसे पहले तो ये साबित करना पड़ता है कि वो खिलाड़ी है, देश के लिए खेला है | और फिर उसके मेडल बहार फेंक दिए जाते हैं|

पान सिंह के दिल में एक वक्त इस देश के लिए मर जाने का जज्बा था, पर एक दिन वो इसी देश के रक्षकों से अपनी रक्षा के लिए गिड़गिड़ाता दिखाई देता है | पर उसकी कोई नहीं सुनता | हार के वो बागी बन जाता है | अपना बदला लेता है| पर सब यहाँ खत्म नहीं हो पाता | कदम कदम पे धोखे मिलते हैं, अपने भी साथ छोड़ते हैं |

पान सिंह वक्त का मारा लगता तो है,  पर है नहीं | उसमे अगर सच्चाई है , सादगी है तो अपने ऊपर उठे हाथ को imageकाटने की ताकत भी | वो एक गाल पे पड़े चांटे का जवाब दूसरा गाल आगे करके देता है पर जब कोई उसके दूसरे गाल पे भी चांटा मारता है तो वो उसको जान से मार देने का माद्दा भी रखता है |

और शायद यही वो मोड़ है जब वो हमारे “सभ्य और सहिष्णु" समाज में बुरा बन जाता है | लोग ये नहीं पूछते कि क्यूँ उसने ५००० मीटर की रेस छोड़ी और क्यूँ बाधा दौड़ में दौड़ा | कितनी आसानी से बात मान ली थी उसने | पर जब एक बार वो बन्दूक उठा लेता है तो हर किसी से अपनी बात बोलने के बाद बोलता है “कहो हाँ"| डर के ही सही पर दुनिया मानती है उसकी बात |

ये दिल का कमल सबसे सुन्दर, मेहनत का फल सबसे मीठा” कहने वाला राजू सबको सदभाव का पाठ पढाता है | पान सिंह उसे समझता भी है शायद | पर उसकी ज़िंदगी “सिनेमा" से इतर हो जाती है| दोनों कथानक एक से होते हुए भी बहुत अलग हैं इसी वजह से |

मैं दोनों फिल्मों कि तुलना नहीं करना चाहता हूँ| राजकपूर या इरफ़ान खान दोनों मंझे हुए अभिनेता है और दोनों मेरे पसंदीदा भी | पर दोनों फिल्मों की अप्रोच मुझे सोचने पर मजबूर करती है | “जिस देश में गंगा बहती है” जहाँ से शुरू होती है , “पान सिंह तोमर" उससे पहले कहीं शुरू हो चुकी होती है| पर “पान सिंह तोमर"  का कोई अंत नहीं है | क्यूंकि वो कोई कहानी नहीं, एक आपबीती है | “पान सिंह" आजादी के बाद हर पल मरता आ रहा है | हाँ रूप रंग बदलता रहता है उसके खत्म होने का | कभी वो ज़हर खा लेता है, कभी उसकी लाश पेड़ से टंगी पायी जाती है , कभी मुठभेड़ में मारा जाता है | कभी कभी वो नहीं भी खत्म होता , पूरी ज़िंदगी अपना ही बोझ ढोता रहता है |

कहते हैं “जिस देश में गंगा बहती है” तत्कालीन प्रधानमत्री जी के आग्रह पे बनाई गयी थी | उस समय डकैतों का कॉफी दखल था आम ज़िंदगी में | ये भी सुना है कि काफ़ी गिरोहों ने हथियार भी डाले थे उस फिल्म को देखकर | पर वो फिल्म या तो हमारे हुकुमरानों ने  देखी नहीं या देख के भी नज़रंदाज़ कर दी | वरना “पान सिंह तोमर" शायद केवल एक अच्छे खिलाड़ी की तरह ही याद किया जाता|

जब तक हम ये नहीं जानेंगे कि हर शख्श हमारी तरह सांस लेता है, उसके सीने में भी दिल धड़कता है | उसे भी दर्द होता है , उसके भी कोई अपने हैं | वो भी सर उठा के जीना चाहता है | उसे भी उसी ऊपर वाले ने बनाया है जिसने हमें बनाया है |तब तक “पान सिंह तोमर" बनते रहेंगे और बार बार आकर वही सवाल खड़ा करते रहेंगे तो “पान सिंह तोमर ” ने किया |

नहीं जानता कि कौन ज्यादा  सही है “राजू" या “पान सिंह तोमर" | पर हाँ पान सिंह से शायद ज़ुल्म सहा नहीं गया | किसी को मारना गुनाह है, पर अपने ऊपर हुए अन्याय को झेलना और चुप रहना उससे भी बड़ा गुनाह | पान सिंह शायद इन्ही दो गुनाहों के बीच दब गया |

--देवांशु

शनिवार, 10 मार्च 2012

चित्रकारी

कलाकारी बहुत ज़रूरी चीज़ है | अब देखो जो कलाकार है वही “भाउक” हो सकता है| इन चलचित्रों पे गौर फरमाएं :

१. दिल चाहता है
२. तारे ज़मीन पर
३. जाने तू या जाने ना
४. धोबी घाट

इन सबमे कलाकारी , बोले तो “चित्रकारी" की महत्ता का विषद वर्णन किया गया है | एक में तीन खुराफाती दोस्तों में सबसे शांत धीर-गंभीर वो था जो पेंटिंग करता था| दूसरी के बारे में तो आप से क्या कहें, उसमे तो हर कोई पेंटिंग करता था| तीसरी में नायिका अपने भाई के बारे में तब तक नहीं जान पाती जब तक वो उसका पेंटिंग से भरा कमरा नहीं देख लेती |  यही हालत चौथी में भी है | मतलब कुल मिलाके पेंटिंग का बोल बाला है हर तरफ | और दीगर बात ये भी है की इन सबमे कहीं ना कहीं आमिर साहब इन्वोल्व्ड हैं|

वैसे उन्होंने चित्रकारी गजनी में भी की थी, पर वहाँ “चित्रकारी" की “कल्पना” अलग थी|  चित्रकार तो मिया मजनू भी थे फिल्म वेलकम में और साथ ही चित्रकार जिनेलिया भी थी फिल्म लाइफ पार्टनर में | वैसे लाइफ पार्टनर में जिनेलिया एक गायिका और लेखिका भी थी| पर यहाँ मुद्दा चित्रकारी का है तो उसी की बात करते हैं|
तो किसी भी टाइप की चित्रकारी करने से इंसान की वैलू बढ़ जाती है | तो हमने भी सोचा क्यूँ ना चित्रकारी पे अपने हाथ आज़माए जाएँ…और पिछले साल नवंबर के महीने में अपने आई टी इंडस्ट्री करियर के ५ साल पूरे होने की खुशी में, इन ५ सालों में हमारी दुःख-दुःख imageकी साथी काफ़ी के मग पे हमने अपनी चित्रकारी का नमूना बना डाला…गौर फरमाएं…

फिर ध्यान आया की ये चित्रकारी का शौक तो हमें बचपन से है| हम इतने होनहार रहे चित्रकारी में की पूंछो मत | मारे डर के चित्रकला की क्लास से भगे रहे | बोले की उद्यान विभाग में हैं, पेड़ों को पानी देना है (ये क्लास ४ या ५ की बात है) टीचर ये नहीं समझ पाए कि ऐसा कौन सा पौधा है जिसे शाम को ठीक तीन बजे पानी देना होता है ? और वो भी रोज, वो आज भी यही कहते होंगे कि लड़का पेड़ पौधों से लगाव रखता है|

चित्रकारी बड़ी फेमस है हमारी, हमारे घर में, हमको छोड़ के सब का हाथ ठीक ठाक है | पापा जी का और भाई का तो सुपर-डुपर एक दम | तो लताड़े भी बहुत गए हैं| ड्राइंग का पेपर हमें दुनिया के सबसे घृणित पेपर्स में से एक लगता था | उसकी एक दम कदर नहीं करते थे | एक दिन ऐसे ही पहुँच गए पेपर देने | सवाल आया “एक अमरुद का चित्र बनायें और उसे उचित रंगों से सजाएँ" | अब हम तो एक पेन्सिल ढंग से ना ले गए थे | बस ये पता था अमरुद गोल होता है और मेरे दोस्त का कड़ा भी गोल है | उससे पेन्सिल भी मांगे और कड़ा भी | बना दिए एक दम गोल गोल , ताज़ा-फ्रेश अमरुद | अब आयी बात उसे “उचित" रंगों से सजाने की तो ये काम हम कैसे कर सकते थे, रंग लाना तो हम ऐसे ही भूल गए थे | बगल में मेरा एक सीनियर बड़े मन से ड्राइंग बना रहा था | उसे हमने बोला कि हमें भी स्केच दे दो हम भूल गए हैं | उसने बोला दे तो देंगे पर वही देंगे जो खाली होगा सब नहीं दे पाएंगे | अंधा क्या चाहे दो आँखें | हमने हामी भर दी | बस सवाल थोड़ा सा बदल के समझना पड़ा “एक अमरुद का चित्र बनायें और उसे उपलब्ध रंगों से सजाएँ"| अब वो पेज तो मेरे पास नहीं है पर यही तो कलाकार की सबसे बड़ी खासियत है कि वो उसे दुबारा भी बना देता है | ये लीजिए हमने अपनी शानदार पेंटिंग फिर बना डाली एम एस पेंट पे…image

रूम से बहार निकल कर जब अपने बैग में संभाल के अपना पेपर रखने लगे तो दिखा मम्मी ने कलर का डिब्बा रख कर दिया था पर हमें इन चीज़ों से कहाँ वास्ता था | खैर घर आये किसी को कुछ नहीं बताये | कुछ दिनों बाद जब घर पे दिखाने के लिए कॉपी मिली तो बड़ा सा क्रोस बना हुआ था | नंबर मिले थे १० में से ० और लिखा था “क्या अमरुद इस रंग का होता है” | बहुत लताड़े गए |  भाई के ड्राइंग में फोड़ू नंबर आते थे | तो और लताड़े गए |

खैर इतना अपमान सहने के बाद बारी आयी पोस्टर बनाने की | विषय मिला “व्यायाम करो" | एक फोटो बनाये , एक लड़का वेट लिफ्टिंग के वेट्स उठाये ऊपर में तन के खड़ा है | बस खुपड़िया बनाने की जगह नहीं बची | हमने “एड्जस्टिंग नेचर” का परिचय देते हुए हलकी सी टेढ़ी बना दी, बाईं तरफ झुकी हुई| स्कूल में टीचर ने और घर में पापा ने फिर हड़काया | “ऐसे गर्दन बनती है?”| अब उन्हें कौन बताये जब वेट ज्यादा हो जाता है तो उसे ऊपर उठाने के लिए गर्दन टेढी करनी ही पड़ती है| खैर वो सब लोग तो नासमझ हैं, एक अकेला मैं ही समझदार हूँ |

ऐसा नहीं है कि मै अकेला इंसान हूँ इस टाइप का, मेरे सबसे जिगरी दोस्त, शुशांत भाई भी चित्रकारी के पारखी हैं | एक बार उनके ड्राइंग में अच्छे नंबर आ गए तो घर वाले दौड़ के गए ये देखने कि ड्राइंग में कैसे आ गए नंबर | हुआ यूँ कि सवाल आया था निम्न में से कोई एक चित्र बनाये | भाई ने उठाया राजहंस | उस ज़माने में पेन्सिल से शेड देने का चस्का सबको चढा हुआ था | उन्होंने भी दे डाला | पर जब कॉपी चेक हुई तो टीचर ने उन्हें पूरे नम्बर दे दिए क्यूंकि दूसरा ऑप्शन कौवा बनाने का था | आजतक वो ये सोच के खुश हैं कि उन्होंने लिखा नहीं था कि ये राजहंस है|

खैर कहानियाँ तो और भी हैं, एक बार हमने एक फूल का फोटो बनाया, उसे उचित रंगों से सजाया और जब वो अनुचित बन गया तो किसी बड़े आर्टिस्ट कि तरह उसपे अपने नाम की जगह अपनी सिस्टर का नाम डाल दिया |

अभी लेटेस्ट एक और चित्रकारी किये हैं, आप भी देखो …image
आपको क्या लगता है कि इस फोटो को मैं अगर कांटेस्ट के लिए भेजूं तो मुझे अर्थशास्त्र का ऑस्कर पुरस्कार मिल सकता है क्या??
(ये लास्ट लाइन का आइडिया हमें अभिषेक बाबू के लव लेटर से आया है )

नमस्ते  !!!!
--देवांशु

मंगलवार, 6 मार्च 2012

अथ श्री “कार” माहत्म्य पार्ट-२


कार की महानता अपरम्पार है, मैंने बताया भी था पहले…आशीष भाई दिल पे ले गए इस बात को| आव देखा ना ताव ला के एक सफ़ेद चमचमाती कार खड़ी कर दी कि “लो बेट्टा, बहुत बोल रहे थे, देखो ला दिए कार, अब बोलो" | हमने माहौल संभाला और बोला “अरे भाई बधाई हो, बहुत बहुत बधाई हो” |

लेकिन वो इतने से नहीं माने और बोले कि “अबे मेरे पास तो कार भी है और उसको चलाने का लाइसेंस भी, तुम्हारे पास क्या है ???” अब क्या जवाब देते हम | “शांत गदाधारी भीम शांत" ये मन ही मन सोच के खुद को शांत किया और बड़े प्यार से लजाते हुए बोले

“यार कार तो मेरे पास भी है,शेयरिंग में है तो क्या हुआ"|

“हाँ तो, का करोगे ऐसी कार का जब चलाना ना आये| और सुनो तब तक अपना मुंह मत दिखाना जब तक हाथ में लाइसेंस ना हो, पता नहीं कहाँ कहाँ से चले आते हैं लोग" ये बोलकर वो चले गए|

मार्केट में अपनी  इतनी बेज्जती कभी नहीं हुई थी | थोड़ी बहुत हुई थी, दैट आई मैनेज्ड | पूरे १५ मिनट इस समस्या पे विचार किया | फिर मोटी चमड़ी ओढ़ के सो गए |

२ घंटे बाद आशीष बाबू का ही फोन आया और बोले:

“घूमने चलोगे”

“कहाँ" हमने सवाल किया |

“जहाँ हम चाहेंगे वहाँ, जिनको कार चलाना नहीं आता वो चुपचाप पीछे बैठे, बेगर्स कांट बी चूज़र्स” हड़काते हुए बोले |

फिर बेज्जती | पिछली बार से ज्यादा | अब ठान लिया कि कुछ भी हो जाये कार “हांकना" सीखना ही है | और लाइसेंस भी लेना है काहे कि जब तक डिग्री ना हो तब तक बिक्री नहीं होती मार्केट में ना  |

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यहाँ लाइसेंस लेने के लिए पहले एक ठो लिखित परीक्षा पास करनी पड़ती है | वो हम पहले ही पास कर चुके थे | फिर किसी ड्राइविंग स्कूल से कम से कम ६ घंटे का कोर्स करना पड़ता है और उसके बाद लाइसेंस के लिए आप जो है योग्य हो जाते हो| हम भी पहुंचे एक स्कूल में, पहले ही दिन इंस्ट्रक्टर ने बताया :

“देखो, आगे वाली कार से ३ सेकण्ड की दूरी पे रहो, कोई खम्बा या साइन बोर्ड जब वो पार करे तो गिनो १००१, १००२, १००३, १००४ और तब तुम्हारी कार निकलनी चाहिए उस खम्बे या बोर्ड के पास से| अगर इससे कम हो तो स्पीड कम कर लो”

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मन में आया बोल दूं कि इससे कम होगी तो स्पीड बढ़ा ना लूं, उससे आगे निकल जाऊंगा फिर वो गिनेगा १००१, १००२, १००३ , १००४ | पर बोलने में डर लगा |

इसके बाद एक नयी बात बताई इंस्ट्रक्टर ने
“अगर कार चलाते टाइम कभी नींद आने लगे तो कार की स्पीड कम करो, किसी रेस्ट एरिया में जाओ और थोड़ा सो लो, फिर आगे बढ़ो"
मन में आया क्यूँ ना स्पीड बढ़ा लूं और जल्दी घर पहुँच जाऊं और फिर सो जाऊं आराम से | लेकिन मैंने अपने विचारों को एक बार और  काबू किया |

३ दिन में ६ घंटे की क्लासेस करके और क्लास पूरी तरह से करने का प्रमाण पत्र लेकर हम पहुंचे लाइसेंस लेने | सबने बताया कि एक बार क्लासेस कर लो तो ज्यादातर लाइसेंस बिना टेस्ट दिए मिल जाता है | पर लाइसेंस देने के लिए जो कन्या बैठी हुई थी उसे मेरी भोली सूरत पे तरस आ गया और टेस्ट देने का फरमान जारी कर दिया | जोश में हम भी टेस्ट के लिए रेडी हो गए | पूरे एक घंटे बाद नंबर आया मेरा | और १५ मिनट टेस्ट लेने के बाद परीक्षक ने लाइसेंस देने से मना कर दिया | बोले कि “तुम कार घुमा नहीं पाते ठीक से, कुछ ज्यादा ही वेट करते हो चौराहे पे और सबसे बड़ी बात पूरे रस्ते ओवर स्पीडिंग करते रहे तुम, जाओ फिर से प्रैक्टिस करो” |

मुझे रिजेक्ट होने का उतना दुःख नहीं था जितना मुझे आशीष कि हंसी से लग रहा था जो वो पेट पकड़ पकड़ के हंसने जा रहा था | खैर रोनी सी सूरत बना के पहुंचे हम|

“अरे बड़ा बुरा हुआ यार ये तो , मैंने तो टेस्ट भी नहीं दिया था फिर भी मिल गया था , वैसे सीरत की बात होती है देखो ये तो , मैंने दिया भी होता तो क्लियर हो जाता, कोई नहीं, थोड़ी और मेहनत करो, बेटर लक नेक्स्ट टाइम” अंदाज़ तो उनका हौसला बढ़ाने वाला था पर असलियत तो मैं जानता हूँ|

पूरे १ घंटे और तैयारी की | दुबारा टेस्ट दिया | इस बार परीक्षक का कमेन्ट था “तुमने पूरे रस्ते गाड़ी ५ मील प्रति घंटा धीरे चलायी”| मन किया कि बोलूँ “रुक अभी तेरे को गाड़ी के पीछे बांधता हूँ, फिर दौड़ा दूंगा कार तब बताना कि तेज चल रही है या धीमे,  कभी बोलते हो तेज चलायी, कभी बोलते हो धीमे चलायी, एक बात पे रहो, थाली पर के बैगन कहीं के”

पर ये सब कहना नहीं पड़ा क्यूंकि उसने इस हिदायत के साथ की मैं अपनी स्पीड बरोबर रखूंगा लाइसेंस दे दिया|  भागता हुआ मैं आशीष बाबू के पास पहुंचा|

“पता था मुझे तुम ये कर सकते हो" ये कहकर उन्होंने सारा क्रेडिट खुद रख लिया| खैर अच्छा दोस्त है हमने भी माफ कर दिया |


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फिर मैंने थोड़ी रिसर्च की कि कितना पैसा फूँक डाला इस लाइसेंस के चक्कर में | हिसाब लगाया तो पता चला कि अपने हिंदुस्तान के १५००० रुपये लगभग लगा दिए |  बड़ा दुःख हुआ | बाद में पता चला कि कंपनी ये पैसे वापस कर देगी अगर क्लेम करो तो | हमने क्लेम किया |  करीबन ५००० रुपये टैक्स कट गया क्लेम के लफड़े में | खुशी हुई कि केवल ५००० गए बाकी तो बचे  | पार्टी देने का मन कर गया |

थोड़ा और सोचा कि अगर मैंने १००० रुपये सुविधा शुल्क के दिए होते तो घर बैठे लाइसेंस मिल जाता अपने मुल्क में | खर्चा भी कम , आराम भी ज्यादा | तभी मैं स्ट्रोंग लोकपाल बिल के अगेंस्ट हूँ|

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खैर ये सब बात निपटी, लफड़ा लोचा निपटा | लाइसेंस भी आ गया | कार भी हांकने लगे | आशीष भाई का भी शुक्रिया किया हमने कि उन्होंने हमें ये सब करने के लिए प्रेरित किया | वो वाकई में बड़े खुश हुए| 

हमारे एक और दोस्त हैं, उनको लेकर हम लोग घूमने निकले, "कार" से | पूरे दिन घूमने के बाद उन्होंने हमारी ड्राइविंग स्किल पे अपना फीडबैक दे मारा:

“यार तुम चलाते तो बढ़िया हो पर अभी वो बात नहीं आयी, टर्निंग पे स्पीड ज्यादा होती है, ब्रेक प्रोपर नहीं लगाते, साथ बैठने में अभी थोड़ा डर लगता है, थोड़ी और मेहनत करो"

आशीष भाई को इसका तोड़ पता था तुरंत उनसे बोले “अरे तुम्हारा लाइसेंस आ गया??"

बुरी तरह झेंपते हुए उन्होंने बोला “कहाँ यार, जाना है, ड्राइविंग में कॉन्फिडेंस नहीं आ रहा अभी"

इसके बाद मैं चाह के भी नहीं हंस पाया|
--देवांशु