रविवार, 25 दिसंबर 2011

रिसर्च-ए-पियक्कड़ी

एक तो मै बड़ा परेशान हूँ इन रिसर्च करने वालों से, पता नहीं किस किस बात पे रिसर्च किया करते हैं| मैंने अपने एक अपने बड़े काबिल दोस्त से पूंछा…"यार ये रिसर्च क्या होती है बे"…तो उनका जवाब आया.."अबे देखो, दुनिया में बहुत सी चीज़ें जो हैं ना, सब सरची जा चुकी हैं, सरची समझते हो ना बे, मतलब खोजी |  हैं, तो, समझे | और जब लोगो कि जादा भुजाएं फड़फड़ाने लगती हैं और चैन नहीं आता है तो वो फिर से उन्हें सरचियाने लगते हैं, इसी को रि-सर्च बोलते हैं|"

हम थोड़ा नाराज़ हो लिए, हमें तो खुद रिसर्चियाने की आदत बचपन से रही है |  हम बोले “नहीं मालिक! ऐसा नहीं है, अगर दुनिया में रिसर्च ना हो तो काम नहीं चलेगा, देखो जैसे लोग आइंस्टाइन पे रिसर्च कर रहे हैं, कि उनके पास इतना दिमाग कैसे आया, इससे बहुत लाभ होगा|”

जवाब मिला “अबे आइंस्टाइन को तो हम भी सर्च कर रहे हैं, पता नहीं का का लिख के कट लिए, कुछ करना है तो समाज के लिए, देश के लिए करो, रिसर्च-फिसर्च से कुछ नहीं होगा, समझे बे”

बात के बढ़ जाने पर पिटने का डर था, इसलिए हमने उनको प्रणाम किया और बोले “खैर गुरु कोई बात नहीं, बाद में डिसकसियायेंगे इस मुद्दे पे, अभी चलते हैं|”

मालिक ने हमें आशीर्वाद दिया और रास्ते में जाते किसी अपने चेले को, जो साइकिल से कहीं जा रहा था, रुकने का आदेश दिया और बोले “हमें घर तक छोड़ दो"| और वो निकल लिए|

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इसके बाद हमारी रिसर्च करने की इच्छा और बढ़ गयी, मुद्दा ढूँढने निकल पड़े, कि कोई तो मुद्दा मिले |  पर सारे मुद्दे पे तो कोई ना कोई रिसर्च कर रहा है,  कविता से लेकर बढ़ती महंगाई , राजनेता से लेकर अभिनेता, सब पर कोई ना कोई लगा हुआ है|  दुनिया भर के मार्केट डूब रहे हैं, रिसर्च का मार्केट तरक्की पे है| 

फिर अपने काबिल दोस्त की बात याद आयी “कुछ करना है तो समाज के लिए, देश के लिए करो" | बस हम पता करने लगे  कोई उबलता हुआ सामाजिक मुद्दा |  बड़े-बड़े अक्षरों में ज्ञान की कुछ बातें लिखी रहती हैं जगह जगह , हमारी नज़र में एक आ गयी:

“शराब एक समाजिक बुराई है"

मिल गया मुद्दा, सोचा कि शराब पे कौन रिसर्च करेगा | हम कर लेते हैं |  पर बाद में पता चला, इसपे भी रिसर्च हो गयी है | इसी गम में सोचा थोड़ी पी ली जाय, कुछ राहत मिले शायद|  ठीक उसी समय एक आइडिया आया कि क्यूँ ना “पियक्कड़ी" पे रिसर्च की जाय, मामला जम गया और हम लग लिए रिसर्च पे, १५-२० की एक दम दम-निकालू मेहनत के बाद पियक्कड़ी पे हमारा शोध पत्र तैयार हो गया है, छाप रहे हैं उसके कुछ मुख्य-अंश|

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पीना, क्या है पीना?
“पीना" कोई आसान काम नहीं है…बड़ी वैज्ञानिक प्रक्रिया है…पीना कई तरीके का होता है| पीने के कुछ मुख्य प्रकार निम्नलिखित है :
१. पानी पीना
२. खून पीना
३. सिर्फ “पीना"

पानी पीना एक ऐसी बेफजूल की प्रक्रिया है जिसके लफड़े में पड़ के इंसान रात को जाग-जाग कर, काम करने के बीच भाग-भाग कर, पानी के जग, गिलास आदि तक जाता है, पानी पीता है, और वापस आ जाता है|  जीवन की नीरसता को बढाने में इसी पानी पीने का मुख्य योगदान है|  पानी पीने के साथ और भी बड़ी समस्याएं हैं| जैसे : पीने का पानी साफ़ ही होना चाहिए|  आदि आदि|

खून पीना, एक “बौद्धिक" प्रक्रिया है, इसमें खून का कोई आदान-प्रदान नहीं होता, ना आपको “ड्रैकुला" बनने की  ज़रूरत है,  बस जब भी, जहाँ भी मौका मिले, किसी ऑब्जेक्ट को पकड़िये और उसे ज्ञान देने लगिये, चाहे वो सुने ना सुने | थोड़ी देर में वो खुद ही बोल देगा “आगे बढ़ो, काहे खून पी रहे हो"| बस यही वो क्षण होगा जब आप खून पीने में एक्सपर्ट होने की तरफ कदम बढ़ा दोगे |  (जैसे मै इस पोस्ट के साथ आपका खून पी रहा हूँ)

सिर्फ"पीना" ही है जो असली पीना है | इस कैटेगरी में व्हिस्की, वोडका, रम आदि पीना आता है| इन्हें पीने पर ही आदमी पीने वाला या पियक्कड़ कहलाता है|  इसके बारे में और जानकारी नीचे के हिस्सों में है|

पियक्कड़ क्या होता है?
ये शब्द अक्सर सुनने में मिलता है कि फलां आदमी बड़ा पियक्कड़ है, पर इसकी कोई सोलिड डेफिनिशन ढूँढने पे भी नहीं मिलती| पीते बहुत लोग हैं, पर कोई एक विशेष व्यक्ति पियक्कड़ कैसे कहलाता है? इस बात पे बहुत लोगो के विचार लिए| कोई एक भी विचार पूरी तरह से पूरा नहीं निकला| हार के हम अपने उन्ही काबिल दोस्त के पास पहुँच गए, सवाल दागा | जवाब भी गोली की तरह आया|

“देखो, पीना एक सुपर-सेट है, सुपर-सेट पढ़े हो?”

हम बोले हाँ पढ़े हैं| वो आगे बोले “तो हाँ पीना एक सुपर सेट है, और पियक्कड़ होना सब-सेट, समझे, अब तुम पूंछोगे कैसे, तो बात ये है कि जब आदमी पी के निम्न बातों का पालन करे तो समझ लो वो पियक्कड़ है अन्यथा बस पीने वाला :
  • अपने घर से दो गली दूर से ही दरवाजा खोलने की आवाज लगाना|
  • रस्ते पे बैठे कुत्तों को प्यार करना, कि तुम ही मेरे सच्चे दोस्त हो|
  • बार बार चीख चीख के कहना कि मैंने पी नहीं रखी है|
  • पहले तो लड़खड़ाते हुए गिरना नहीं, और गिरना भी तो सीधे नाली में गिरना|

हमने कहा ये तो काफी “आम" आदमी वाली बातें हो गयी, बड़े लोग भी तो पीते हैं, उनमे कोई पियक्कड़ नहीं होता क्या? जवाब मिला “देखो जो पकड़ा जाये वही चोर होता है, बड़े लोग पीते नहीं, शराब को अनुग्रहित करते हैं, और जो पीता नहीं वो पियक्कड़ कैसे हो सकता है| देवदास भी घर छोड़ने के बाद ही पियक्कड़ कहलाया ” हमें अपने सवाल का जवाब मिल गया|

पियक्कड़ होने के मुख्य कारण क्या है?
आदमी पियक्कड़ सिर्फ गम में होता है, खुशी में पीने वाला सिर्फ पीने वाला होता है |  गम के तीन अंग होते हैं:
१. क्या
२. क्यूँ
३. किसका

“क्या" से मतलब ये है कि गम किस टाइप का है, प्यार में धोका, काम का झोंका इसके मुख्य दोषी होते हैं| बात बात पे गम हो जाना आम बात है, पर कोई गम “क्यूँ" बड़ा हो जाता है, जिसके कई कारक हो सकते हैं| कारकों का अध्ययन इस विषय सीमा के बाहर है (जैसे  भाषणों में मुद्दे की बातें गायब होती हैं)| बस यही “क्यूँ" इंसान को पीने पे मजबूर कर देता है|

“किसका" गम, इसमे मुख्यतया दो ही जवाबदेह वस्तुएँ होती हैं…”नौकरी" और “छोकरी" | जिनके बारे में आपलोगों को बताना वैसा ही है जैसे “सूरज" को “दिया" दिखाना| समझदार लोग हो आप|

जब इंसान इन तीनो कारणों के चक्कर में १-१ पेग लगा लेता है तो उसके बाद ३-४ पेग और लग जाते हैं, बस यहीं आकर वो “पियक्कड़" बन जाता है|

ऐसा क्यूँ कहा जाता है कि “कलयुग में दारू मिली सोच समझ के पी”?
ये सब भ्रम पैदा हुआ कुछ ट्रकों और ऑटो के पीछे लिखे एक मशहूर दोहे के वजह से (इसके रचयिता पे भी रिसर्च होनी चाहिए)
सतयुग में अमृत मिला, द्वापर युग में घी| कलयुग में दारू मिली सोच समझ के पी|

मामला “मार्केटिंग" से जुड़ा हुआ है| दरअसल बाकी युगों में “दारू" के सेल्समैन थोड़े कमजोर थे| सतयुग में देवता लोग समुद्र-मंथन के बाद अमृत के पीछे पड़ गए| लड़ाई में बड़े बड़े लोगो को आना पड़ा, दारू दब गयी इस लफड़े में |  द्वापर में तो कृष्ण जी सबकुछ थे, और चूँकि वो खुद गाय प्रेमी थे तो एडबाजी घी की हुई, शराब फिर कहीं कोने में अपना अस्तित्व संभालती रही| कलियुग में बड़े बड़े लोग इसकी मार्केटिंग में कूद पड़े, तो बाकी सब पीछे हो गए|

फिर भी पीना एक सामाजिक बुराई कहलाता है, ऐसा क्यूँ?
ये सब किया धरा है उनलोगों का जो खुद नहीं पीते, अब जब खुद नहीं पीते तो औरों को पीते नहीं देख सकते| और किसी तरह तो  पीने वालों या पियक्कड़ों का विरोध हो नहीं सकता था, इसलिए इसे सामाजिक बुराई बता के इसका विरोध करते हैं|  पीने को समाजविरोधी बोलना ठीक वैसा है जैसे अंगूर ना मिलने पे कहना कि अंगूर खट्टे हैं|

तो पीना बुरा है या भला?
नो कमेन्ट|
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पूरी रिसर्च  स्थान के आभाव (टाइपिंग के आलस) के चलते यहाँ प्रकाशित नहीं की गयी है| जल्द ही देश के अग्रणी विश्वविद्यालयों के वेबसाइट पर निशुल्क पढ़ी जा सकती है | तबतक आप ये  बताओ आपको क्या लगता है , आप पीने वाले हो?, “पियक्कड़" हो या आपके लिए पीना एक सामाजिक बुराई है?
धन्यवाद….
--देवांशु

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

आप आ रहे हो ना?

ज़माना जो है वो है फोन टैपिंग का…आजकल बाहर सारे नेताओं-अभिनेत्रियों के फोन जो हैं, टैप हो रहे हैं|  इसी माहौल को देखते हुए एक और टैपिंग हुई,  ये बतकही हुई महेशवा की लडकी रूपा और गाँव के “सो काल्ड उजड्ड" बिरेंदर के बीच, वो भी एस एम् एस पर  |  अरे वही जिनके बारे में पिछली बार बताये रहे हम..

तो हुआ यूं कि बिरेंदर जो है वो गिल्ली डंडा का मैच जिताए दिया  गाँव को,  सारे बाल-गोपाल अपने कंधे पे बैठाय के जुलुस निकाल दिए,  पूरे गाँव में | जुलुस जो है वो खतम हुआ कल्लू के हाते में, मुखिया जी खुद आये बिरेंदर को ५१ रुपये का इनाम देने और साथ में रोज ताजा दूध पहुँचवाने का वादा भी किये|

सारा वाकया, जो कल्लू के हाते में हुआ, महेशवा के घर से दिख रहा था, महेशवा की “दुक्लौती" पर छोटी लड़की, रूपा, फ़िदा हो गयी बिरेंदर पे| बिरेंदर भी “ज़माने" से फ़िदा रहे रूपा पे|

पिछले प्रधानी के चुनाव में महेश , करेंट प्रधान जी के  “स्टार"  प्रचारक रहे |  धाक जमाने के लिए अपना “मोबाइल" नंबर भी बता दिए सबको|  जबसे प्रधान जी चुनाव जीते, महेश लग लिए प्रधान जी की जी-हजूरी में, और फोन आ धमका रूपा के हत्थे…

फिर एक दिन जब सुत्तन की शादी के महिला संगीत में महेश का फोन, रूपा के हाथ में देखा तो बिरेंदर “सन्देश"  भेज दिए… “कैसी हो रूपा…बिरेंदर"

जवाब भी आ गया “हम ठीक हैं, तुम अपनी कहो"

बिरेंदर को तुरंत “बैलेंस" का खयाल आ गया “अरे तुम्हरे फोन में करेंसी तो है?”
 (भाई लोगो आजकल  करेंसी का मतलब मोबाईल का बैलेंस होता है)

इसका भी जवाब “निशा खातिर रहो, ३० रुपये का टाप-अप डलवाए हैं..१५०० एसमेस फ्री हैं"

इसके बाद तो बिरेंदर के पर लग गए..रोज रात एस एम् एस करने लगा…

अब बात उस दिन की जिस दिन टैपिंग हुई…. (इसके बाद जहाँ नाम दिखे समझो वो एस एम् एस कर रहा है)

बिरेंदर :  “कल सनीमा चलोगी???”

रूपा : “कौन सा?”

बिरेंदर : “गजनी”

रूपा : “धत्त, चंडाल लग रहा है अमिरवा, कोई रोमांटिक दिखाओ”

बिरेंदर : “रोमांटिक ही मानो, हम तुमको प्यार से “कल्पना" ही बुलाते हैं”

रूपा : “धत्त, रूपा अच्छा है”

बिरेंदर : अच्छा सुनो , अगर सनीमा नही जा सकती तो कल गेंदामल की दुकान पे मिलो| जलेबी खाओगी?

रूपा : “चुप करो, गेंदा चाचा रोज घर आते जाते रहते हैं”

बिरेंदर: “हम सब इन्तेजाम कर लेंगे, तुम आ जाना….कुछ बात करनी है तुमसे"

(इसके आगे कि कहानी आमने सामने की है,  “नो एस एम् एस” )

बिरेंदर सब सेट कर लिए, गेंदामल की दुकान पे पप्पू काम करता है, बिरेंदर का जिगरी दोस्त, उसको खोपचे में लिया गया…“सुनो पप्पू, कल दुई ठो मेज़ खाली रखना ३ से ४ के पास-पास"

पप्पू : “दो काहे?”

बिरेंदर : “अबे तोहार भाभी आ रही है, अब आमने सामने नहिए ना बैठ सकते हैं"

पप्पू : “ठीक है पर कमीशन लगेगा…पूरे ५ रूपये”

बिरेंदर : “ले लेना साले…एक बार बस मिलने का जुगाड़ कराओ”

अगले दिन ठीक ३ बजे रूपा अपनी तीन सहेलियों निम्मो, सीमा और सुधा के साथ गेंदामल के यहाँ पहुँच गयी| थोड़ी देर में बिरेंदर भी पहुंचा, साइकल की घंटी टनटनाते | और जा के बैठ गया ठीक रूपा के पीछे वाली मेज़ पे| दोनों की पीठ एक दूसरे की ओर थी…खुसफुसा के ही बातें हो रही थीं…

बिरेंदर :  “करीना लग रही हो एक दम!!!”

रूपा :  “तुम भी एक दम शाहरुख!!!!”

फिर दोनों हंस दिए| बिरेंदर ने चिल्ला के कहा “पप्पू , एक पलेट जलेबी लाओ"

पप्पू को कमीशन पहुँच चुका था, प्लेट सीधे रूपा की मेज में पहुँची…

बिरेंदर : “लो जलेबी खाओ”

रूपा ने एक जलेबी खाई, मिठास उसकी आवाज़ में उतर गयी “एक दम ताजी हैं"

बिरेंदर : “एक दम, पप्पू अपना आदमी है, बासी थोड़े देगा….समोसे खाओगी….बहुत नाम है यहाँ के  समोसों का”

रूपा :  “देखो ये बताओ बुलाए काहे हो, अम्मा से झूठ बोल के आये हैं कि सीमा के घर जा रहे हैं, जल्दी जाना होगा”

बिरेंदर : “अरे पहले खा तो लो , भूखे पेट कोई बात होती है भला”

रूपा : “सुबह से दो बारी खाना खा चुके हैं…अब काहे की भूख, जो कहना है जल्दी कहो”

बिरेंदर : “अच्छा ठीक है , अपनी सहेलियों को बोलो दूसरी तरफ देखे पहले”

रूपा : “बोलो, वो नहीं सुन रही, हम घर से मना करके लाये हैं कि केवल आँखे खुली रखना कान नहीं, अब बोलोगे कि हम जाएँ”

बिरेंदर : “अरे बिदकती काहे हो, बोलते हैं ना”

रूपा: “तो बोलो”

बिरेंदर : “अच्छा सुनो , हमें तोहरे पिताजी से बहुत डर लगता है”

रूपा : “हमको भी लगता है, ये बताने के लिए बुलाए थे ?”

बिरेंदर : “अरे नहीं, कल तुम्हारी अम्मा मिली थी सब्जी मंडी में , वो बहुत अच्छी हैं, और तुम्हारी दीदी की शादी में पानी का पंडाल हमहि देखे थे”

रूपा : “हमें पता है, तो ये बता रहे थे?”

बिरेंदर : “नहीं हम ये कह रहे हैं कि पप्पू कह रहा था कि तुम्हरी शादी के खाने और मिठाई का काम उसे मिल जाता तो ठीक रहता…”

पप्पू ने घूर के बिरेंदर कि तरफ देखा |  रेडियो कमेंट्री तो वो भी सुन रहा था|

रूपा : “काहे???”

बिरेंदर : “अब शादी हमारी होगी तो और कोई खाना कैसे बना सकता है…”

रूपा : “धत्त!!!!”

और वो उठ के वहाँ से चली गयी…
*****
आज गाँव में पंचायत बुलाई गयी है | हुआ यूँ है कि जब रूपा गेंदामल के यहाँ से उठ के गयी ठीक उसी समय पप्पू के घर से उसका आ गया बुलावा|  रूपा के शर्माने में पड़के बिरेंदर ने छंगा, जो पप्पू के साथ ही काम करता था, को समोसा-जलेबी के पैसे दे दिए और चलते बने | ये बात गेंदामल ने देख ली, बात महेशवा तक पहुंची, प्रधान जी से कह के पंचायत बुला ली उसने…

बिरेंदर पहुंचे अपने जिगरी दोस्त पप्पू और बंसी के साथ, दोनों का मोरल सपोर्ट लिए हुए| रूपा के साथ उसकी अम्मा थीं, सहेलियां पीछे भीड़ में थी, महेश एक तरफ पंचों के हुक्का-पानी का इन्तेजाम कर रहे थे..
पंचों ने सारी बात सुनी और अपना फैसला प्रधान जी को बता दिया….प्रधान जी ने बिरेंदर से कड़क के कहा…
“तुम होनहार हो बालक, पर इसका मतलब नहीं कि गाँव का माहौल बिगाड़ो”

बिरेंदर : “लड़ाई करने से माहौल बिगड़त है प्रधान जी, प्यार से नाही”

प्रधान जी : “सनीमा देख के आये हो का??”

बिरेंदर :  “नहीं, खुद से बोल रहे हैं|”

प्रधान जी : “तो रूपा से प्यार करते हो?”

बिरेंदर : “हाँ , हम मानते हैं कि हम रूपा से प्यार करते हैं|”

प्रधान जी रूपा की तरफ घूमे, लाज से वो खुद के अंदर समाई जा रही थी..प्रधान जी की आवाज़ में उतनी ही गुर्राहट थी..“तो तुम भी बिरेंदर को चाहती हो?”

रूपा कुछ नहीं बोली…प्रधान जी फिर बोले “बोलो हाँ या ना"

इस बार रूपा ने दिल कड़ा कर हामी में सर हिला दिया…अचानक से गाँव वालों में बातें शुरू हो गयी…प्रधान जी ने भी थोड़ा समय लिया, पंचों से राय सलाह की.. फिर खुद थोड़ी देर सोच के बोले …

“देखो बिरेंदर!!! काम तो तुमने वो किया है जिसको पूरा गाँव गलत माने,  पर हम जानते हैं कि तुमने जो भी किया है नेक इरादे से किया है,  जब तुम पूरे गाँव के सामने रूपा का हाथ थामने को तैयार हो और रूपा भी इसके लिए तैयार है तो हम फैसला तुम्हारे हक में देते हैं| और गाँव वालों से अपील करते हैं, कि ये हमारे गाँव की  पहली प्रेम कहानी है, सिनेमा देखने से अगर मार-पीट, लड़ाई-झगडा भी सीखे हो तो प्यार करना भी सीखो| नए जोड़े को अपना आशीर्वाद दो | पर देखो बिरेंदर, अगर कभी पता चला कि तुमने रूपा को कोई कष्ट दिया है तो सारे गाँव में मुह काला कर गधे पे बैठा के घुमाएंगे तुम्हे…अगर शरत मंजूर है तो सामने आके हाँ बोलो…

बिरेंदर ने देर ना लगाई…..

प्रधान जी फिर बोले “महेश तुम्हे कोई आपत्ति??”

महेश “माई बाप आप जो निर्णय किये हैं सही किये हैं"

प्रधान जी : “तो जाओ मंदिर से पंडित को बुलाओ आज यहीं पे शादी का महूरत भी निकलवा लेते हैं|”

पलक झपकते बिरेंदर के दोस्त पंडित जी को मंदिर से बिना चप्पल उठा लाये..पंडित जी ने बताया अगले महीने कि १२ तारीख को महूरत शुभ है| प्रधान जी ने शादी की घोषणा कर दी!!!!

पूरे गाँव को बुलाया गया है शादी में |  आपको भी आमंत्रण है | आप आ रहे हो ना ????

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

पढाई-लिखाई

        दुनिया में एक तो कन्फ्यूजन वैसे ही कम नहीं था | धरती गोल है या सपाट | एक कोई महानुभाव आये बोले “गोल है”..सबने  मान लिया | फिर आया कन्फ्यूजन कि चलता कौन है..सूरज या पृथ्वी…सब बोले पृथ्वी चलती है (हर किसी को लगता है कि वो चल रहा है बाकी दुनिया जड़ है)  सूरज रुका हुआ है…एक बार दुनिया ने फिर हामी भर दी | फिर एक और आये साइंटिस्ट, बोले कि देखो दोनों चलते हैं…सूरज और पृथ्वी…दुनिया बोली “ना !!! हम ना मानेंगे" …तो वैज्ञानिक बोले “आओ बैठो बांचते हैं तुम्हे ज्ञान | थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी |” जनता बोली समझने से बढ़िया हाँ बोल दो | काम खतम पैसा हजम |

        कुछ लोगो के पास केवल एक ही काम होता है, वो हर चीज़ को रिकार्ड करते रहते हैं,  घटना, सुघटना, दुर्घटना, खेल, खिलाडी,  अनाड़ी, कबाड़ी | जहाँ जिसके बारे में कुछ मिला रिकार्ड कर लिया | ऐसे लोग समाज के दुश्मन होते हैं| कुछ ऐसे ही लोगो की वजह से ऊपर दिए गए सारे कन्फ्यूजन रिकार्ड हो गये….जिसको ये सब समझ में आता है वो सब विज्ञान बोलते हैं और बाकी सब नौटंकी…

       और ऐसे ही समाज के द्रोहियों के लफड़े में पड़कर कुछ लोगो ने “पढाई-लिखाई" जैसी काली करतूत को जनम दिया…सोचो अगर पढ़ना लिखना बुरी बात डिक्लेयर की गयी होती तो? किताबे बेचना कानून के खिलाफ (कानून  की भी कोई किताब नहीं, जिसका जो मन आया वो क़ानून, पर किताब रखना सबके लिए गैर कानूनी) |

       
       पता चला कोई नया सिनेमा आता, हीरो बागी है, माँ-बाप की नहीं सुनता, किताबें पढता है, हिरोइनी भी बागिन (अब बागी का स्त्रीलिंग तो बागिन ही समझ में आया अपनी) , वो लिखती है!!! |  मुंबई की कहानी है, बड़ा शहर है, पढ़ना लिखना खुले आम होता है, दोनों भाग के शादी करते हैं, जीवन सुख से बीतने लगता है, कहानी खतम होती है, पिक्चर का नाम है “जब दोनों लिखे-पढ़े"|


       पहले तो पिक्चर की शूटिंग नहीं हो पाती….गंगा किनारे का सीन है कि हीरो हिरोइनी को छुप के किताब देने आया है |  शुरू ही हुई शूटिंग, कि आ गए कुछ लोग | “गंगा के किनारे इतना अपवित्र काम, पढाई???? ई बरस फिर सूखा पढ़ेगा, कल्मुहे और करमजली , गंगा किनारे किताब, घोर कलजुग"  | दो चार लोग सेट तोड़ देते, कुछ डायरेक्टर को रपटा लेते, कोई प्रोडूसर को पीट देता | एक तरफ कोने में म्यूजिक डायरेक्टर बज रहे हैं| गीतकार के कपड़े फाड़ दिए गए हैं, झोला फाड़ के काफिया मिलाया जा रहा है|
     
       मान लो छुप छुपा के किसी तरह पिक्चर पूरी हो गयी | रिलीज़ से पहले सेंसर बोर्ड आ जाता| देखो वो जहाँ जहाँ किताब दिखी है उसे धुंधला कर दो, जहाँ जहाँ पढाई लिखाई बोला गया हैं वहाँ “टूऊँ” डालो, और ये जो एक सीन है ना जहाँ पुस्तकालय दिखाया है, इसे तो भाई काटना पड़ेगा, नहीं तो पिक्चर पास नहीं होगी | और वो जो एक सीन है जिसमे नदी किनारे हीरो हिरोइनी को किताब देता है , इसकी वजह से पिक्चर एडल्ट घोषित की जाती है|

       पिक्चर रिलीज़ होते ही कोहराम, जगह जगह पिक्चर के प्रिंट जलाये जाते, पिक्चर के पोस्टर जिन गलियों में लगते वहाँ बच्चे  माँ बाप से नज़रें छुपा के जाते….”सोनू अरे ऊ समोसे की दुकान के no padhaiपीछे वाली गली के आखिर में वो जो बंसी की किराने की दुकान के सामने जो पोस्टर लगा है उ देखा? जे मोटी मोटी किताब दिखाई है” “अबे चुप हरामखोर धीरे बोल, पिता जी सुन लिए तो पोस्टर बाद में फटेगा, टांग पहले तोड़ दी जाई”|

      ऐसी फिल्मे छुप छुप के चलती | कल्लू के हाते में रात को सनीमा चलेगा १२ से ३ के बीच में, दीवाली के बहाने निकल लेना, बोलना होलिका दहन करने जा रहे हैं, कोई जान नहीं पायेगा|

     तब कुछ पढाकू लोग वैसे पढते जैसे आज छोटे शहरों के लडके छुप छुप के दारू-सुट्टा पीते हैं| “सुनो रेल की  पटरी के पास वो जो खंडहर है, आज शाम वहाँ १५-२० किताबे लाई जाएँगी,  सब इकठ्ठा हो जाना, २-४ सुना है कविताओं की भी किताबें हैं, सब पढेंगे | और देखो एक झटके में पढ़ना, जादा देर चहलकदमी हुई तो पकडे जाओगे,  और भाई पढ़ते पकड़े गए तो सुनीता-अनीता सब गयी हाथ से, शहर छोड़ना पड़ेगा|”

      तब किताबों के छोटे छोटे हिस्से किये जाते| सब आपस में बाटते और “चियर्स" बोलके जल्दी जल्दी पढते| लौटते वक्त सब अपनी ऑंखें धो लेते “कुछ शब्द आँखों में छप जो जाते हैं"| पकडे जाने का खतरा रहता|
    
      छोटा भाई, बड़े भाई की शिकायत करता पिताजी से “पापा मिंटू दादा किताब पढ़ रहे हैं" पिताजी छोटू को तो दो टाफी देते, मिंटू कूट दिए जाते…
    
      सुबह उठे तो स्कूल की बजाय जंगल चल दिए,  शाम को होमवर्क नहीं है, मस्ती से बैठे, आग जला रहे हैं |  होनहार होने कि कसौटियां बदल जातीं, महेशवा की लड़की कितनी होनहार है, चीते जैसी भागती है, और ऊ बिरेंदर गिल्ली डंडा का हीरो बन गया है, शादी हो जायेगी अब दोनों  की |
     
     वहीँ किसी के घर में तार आता “माँ मैं पढाई करने शहर भाग आया हूँ, परेशान मत होना” | और घर में कोहराम मच जाता…..
-- देवांशु

बुधवार, 30 नवंबर 2011

साल्ट लेक सिटी ट्रिप…

नमस्ते!!!
हाँ तो जेंटललेडीज़ एंड मेन !!!

Happy belated thanksgiving!!!!

ये थैंक्सगिविंग बड़ा खूंखार त्यौहार है भाई!!!  नवम्बर के चौथे गुरूवार को अमरीका में ये मनाया जाता है | और अगले दिन हर चीज़ पे इतनी छूट मिलती है कि कोहराम मच जाता है हर तरफ…मजबूरन इसे काला शुक्रवार घोषित करना पड़ा है (हमें तो यही कारण लगता है बाकी राम जाने काहे बोलते हैं इसे कलुट्टा शुक्कर)…

सबसे गलत बात तो तब होती है जब अगले सोमवार सब बैठ के डिस्कस करते हैं कि “भईया तुम का खरीदे" और अगर आपने कुछ नहीं खरीदा तो इससे बड़ा कोई पाप नहीं हो सकता | कुछ कुछ लोग तो ऐसे ऐसे सामान खरीद डालते हैं कि बस पूंछो ना…जैसे शेविंग किट पे ९०% डिस्काउंट देखते ही एक महिला ने १५-२० ताबड़-तोड़ किट खरीद डाले…आजकल एक अदद दाढ़ी-मूंछ वाले ब्वायफ्रेंड की तलाश में हैं…लड़कियों के सैंडल पे ४०% का डिस्काउंट था एक महाशय १८ जोड़े खरीद लाए….अब उनकी वाइफ तो इंडिया में हैं तो सुबह शाम अपने रूम-मेट्स से उन्ही सैंडलों से मार खाते हैं ( बड़ा घमंड है उन्हें अपने ऊपर, कि साहब लड़कियों   के सैंडल खा रहे हैं)|

ऊलज़लूल शौपिंग के आलावा जो दूसरा काम जनता करती है उसे “घूमना" कहते हैं..ये भी पाप-पुन्य कि बात हो जाती हैं…जैसे आपने कहा कि मै कहीं नहीं गया था घूमने, हर क्यूबिकल से आवाज़ आएगी…काहे नहीं गए? तबियत खराब हो तो भी जाना चाहिए…अभी नहीं गए तो कब जाओगे अब?…पैसे बचा रहे हो क्या? फिर आपको थोड़ी देर में कुछ बातें सुनायी देंगी “बेचारा कहीं जा नहीं पाया…कितना बुरा हुआ ना…इससे तो मेरे को बोलता..भगवान भी क्या क्या दिन दिखाता है…चार दिन घर में अकेला रहा होगा"

इस ज़लालत भरी जिंदगी से बचने के लिए करीबन १ महीने पहले से हम सबने कहीं जाने का सोच रखा था…पर जैसा हमेशा होता है…मन की उड़ान हमें जाने कहाँ कहाँ ले गयी…और हम ३ दिन पहले तक जगह भी  डिसाइड नहीं कर पाए… फाइनली डिसाइड हुआ कि साल्ट लेक सिटी चलते हैं| २ दिन के अंदर सिटी घूमने के पास, रहने के लिए होटल और आने जाने के लिए कार का जुगाड़ किया गया| कुल मिला के पौने तीन ड्राइवर थे …१ हरी भाई, १ दीपक दा, १/२ आशीष भाई  (इन्हें अभी-अभी लाइसेंस मिला है) और १/४ मैं (मेरे पास लर्निंग लाइसेंस है)…आशीष भाई हमें डिस्काउंट में कार दिलवा सकते थे तो उन्हें पूरे ड्राइवर का सम्मान देना पड़ा (जिसका हमें काफी अफ़सोस हुआ बाद में ) और टोटल ड्राईवर हो गए…सवा तीन…इसके अलावा एक इंसान और थे हमारे साथ देबाशीष …जिनका काम जीपीएस को संभालना था….

आगे कहानी गंभीर हो गयी….2011-11-24 07.54.15

पहला पड़ाव था ग्लेन कैन्यन डैम…जहाँ हमलोग तय समय से कुछ ढाई घंटे पहले पहुँच गए..सुबह का साढ़े तीन बज रहा था…अगले ३ घंटे कार में सोके बिताए गए…और सुबह की पहली किरन के साथ हम पहुंचे डैम पे…कोलाराडो नदी पे बना ये बाँध साठ के दशक  में बन के तैयार हुआ था..जो नवाजो जनजाति से जगह लेकर बनाया गया था| ऐसा लगता है कि ये इंसान ने नहीं बनाया है | दोनों सिरे इस तरह से खोये हुए हैं कंकरीट कि दीवारों में जैसे ये मिलने के लिए ही बने थे |

हरी भाई अपने आदत के हिसाब से फोटो खिंचवाने में लगे हुए थे…वो आपको आवाज़ देकर बुलाएँगे कि आओ तुम्हारी एक फोटो लेते हैं, ये जगह बढ़िया है| उसके बाद वो आपसे दनादन ३-४ फोटो खिचवा लेंगे अपनी | और आप नाराज़ ना हो जाएँ तो जाते जाते एक फोटो और ले लेंगे आपकी |

डैम देखने के बाद अगली लोकेशन थी एंटीलोप कैन्यन ..जहाँ एक टूर गाइड के साथ कैन्यन घूमा गया…मैंने कभी सोचा नहीं था कि कोई जगह इतनी भी खूबसूरत हो सकती है….बलुए पत्थरों को कोलाराडो नदी के तेज बहाव ने काट कर इसे बनाया है…किसी मूर्तिकार कि सदियों की मेहनत सी दिखती है…बड़े करीने से एक एक कोने को तराश  के उसे ना जाने क्या क्या रूप दे दिया है…और जब सूरज ठीक ऊपर चमकता है तो ये पूरी जगह उजाले से भर जाती है| हम सूरज कि रोशनी तो नहीं देख पाए क्यूंकि सूरज देवता तो बादलों के साथ छुप्पन छुप्पाई का खेल खेल रहे थे…पर जब भी मेहरबान हुए, झलक दिखा गए रोशनी से भरे महल की..गाइड ने हमें बताया कि १९३१ तक ये जगह मालूम नहीं थी.. जनजाती के लोग ही यहाँ रहते थे..जबसे इसका पता चला, लोग यहाँ आने लगे बड़ी संख्या में | और लोगों ने आके दीवारों पे अपने प्यार का इज़हार भी शुरू कर दिया (ठीक वैसा ही जैसे हमारे यहाँ होता है) | १९९७ में नदी में अचानक बाढ़ आ गयी और ११ लोग मारे गए तबसे यहाँ बिना गाइड के जाना मना है…बारिश के दिनों में ये पानी से भरा रहता है…आखिरी बार ये २००२ में पूरा पानी में डूबा था..हर साल आंशिक रूप से भर जाता है ये ..पानी की धार दीवारों पे अपने फुटप्रिंट छोड़ के जाती है हर साल…
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१८० मिलियन बरस पुराना ये कुदरत का नायाब तोहफा…ना जाने कितने उतार चढ़ाव देख चुका है…आज भी इसके आस पास नवाजो जनजाति रहती है..इसीलिए हमें इसके ऊपर जाने से मना कर दिया हमारे गाइड ने…अदभुत था यहाँ आना …
यहाँ से हमारा अगला पड़ाव साल्ट लेक सिटी में हमारा होटल ही था…पूरे ७ घंटे की ड्राइव थी…जो खाते पीते, गाने गाते गुजर गयी…रास्ता पूरी तरह से सुंदरता के आगोश में डूबा हुआ रहा…कुछ झलकियाँ..
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होटल पहुंचते-पहुंचते सर में हल्का हल्का दर्द सा होने लगा था..जो नहाने के साथ ही काफूर हो गया…रात का ९ बज रहा था…एक भारतीय खाने की जगह ढूंढी गयी…छक के खाया गया खाना…और वापस आके नींद के अलावा हम सबको और कुछ ना सूझा…
अगले दिन सुबह सुबह नाश्ता कर हम पहुंचे ओलिम्पिक ट्रेनिंग क्लब ..यहाँ हम गलती से पहुंचे थे..पर जगह बढ़िया निकली…कुल ३-४ घंटे यहाँ बिताए…आइस स्केटिंग की…आशीष के अलावा किसी को स्केटिंग नहीं आती थी…मैंने जनता में जोश भरने के लिए बोला “गिरने से मत डरो..गिरते भी वहीँ हैं जो कोशिश करते हैं" इसके बाद लोगो ने मेरे गिरने की काफी सारी फोटो ले डाली…
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पर ऐसा नहीं है कि मै केवल गिरता रहा…ये विडियो बानगी है इस बात की..
इसके बाद नेक्स्ट डेस्टिनेशन था स्नोबर्ड….जहाँ बर्फबारी हो रही थी…मैंने अपनी जिंदगी में कभी स्नो फाल नहीं देखा था…रास्ता बर्फ की चादर से ढका हुआ था..”कतिया करूं” गाने के लोकेशन जैसी…और जैसे ही हम वहाँ पहुंचे हम सब के अंदर का छुपा हुआ शैतान सामने आ गया…फिर तो उधम मचा दी…जगह भरी थी बर्फ से…बात हुई कि यहाँ पे टी-शर्ट में फोटो खिचवाओ तो जाने…बस फिर क्या था..पिक ली गयी …२-३ घंटे यहाँ उछल-कूद हुई….
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लौटने का मन तो नहीं कर रहा था..पर क्या करें आना तो था वापस होटल…शाम हो रही थी…मन कर रहा था रस्ते में कहीं चाय, समोसे, पकोड़े मिल जाएँ तो मजा आ जाए…पर कुछ खयाल, बस ख़याल ही रह जाते हैं…

इसके बाद भ्रमण किया गया डाउनटाऊन में नक्षत्रशाला का..जहाँ सिमुलेशन के ज़रिये ग्रीक मायोथोलोजी पे आधारित आस्ट्रिया की कहानी पता चली…उसके हाथों में एक तुला है जिसे तुला राशि का परिचायक कहा गया है…मैंने चौड़े होकर बोला “मैं भी तुला राशि का हूँ"..आशीष भाई का जवाब आया “तभी कुछ ना कुछ करने में तुले रहते हो…चुपचाप सनीमा देखो"…

रात हो रही थी…भूक लगने लगी…पंजाबी रेस्टोरेंट गए…यहाँ भी एक बार फिर हरी भाई सेंटर ऑफ आकर्षण बन गए..जब उन्होंने लस्सी आर्डर की…बोले" गिव में स्वीट लस्सी विध सम साल्ट"
वेटर भाई कुछ समझ नहीं पाए…होटल के मालिक को आना पड़ा..तब मामला सुलटा…

दिन खतम हुआ गहरी नींद में सोने के साथ..स्केटिंग में धडाधड गिरने कि वजह से हाथ पैर दर्द कर रहे थे…पर थकान सब पे भारी साबित हुई…नींद आ गयी…

अगले दिन एहसास हुआ कि आशीष को पूरे एक ड्राईवर का दर्ज़ा देना कितनी बड़ी गलती थी…हमें जहाँ जाना था ..उसके आस पास घंटे भर घुमाने के बाद उन्होंने हथियार डाल दिए कि भाई नहीं पहुंचा पाएंगे…हमने भी कहा “ए मेरे दिल कहीं और चल"|

इसके बाद एक एक करके हमने म्यूजियम, गार्डेन, चिड़ियाघर सब देख डाला|  हरी भाई बदस्तूर कायम थे अपनी फोटोग्राफी के साथ..शायद ही कोई कोना छोड़ा हो उन्होंने..
लौट के एक बार शाम को फिर डाउनटाऊन का चक्कर लगाया गया…इस बार साल्ट लेक का सबसे पुराना चर्च देखा…
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काफी लोग इकठ्ठा थे चर्च में, कुछ बच्चे भी थे जो संगीत बजा रहे थे…दिल खुश हो गया…मन किया कि कुछ माँगा जाये भगवान से…एक बार फिर आशीष भाई की ही आवाज़ सुनायी दी..
“भगवान बस जिंदा रखना…बाकी सब मै देख लूँगा”
रात का खाना एक अमेरिकन रेस्टोरेंट में खाया गया…इसके बाद होटल पहुंचे..आज थकान कम थी…पत्ते खेले गए…एक दूसरे कि टांग खींची गयी…कुछ पिक भी ली गयीं…देर रात तक जगा गया और इस डर के साथ कि कल सुबह लेट ना हो जाएँ, हम सो गए….बीच में हरी भाई ने हम सबका फीडबैक भी दिया….जो फिर कभी बताऊँगा….
सुबह उठ के पैकिंग की गयी और लौट पड़े हम सब अपने घर को…रास्ता फिर भी उतना ही खूबसूरत था…
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ट्रिप खतम हुई, हम शौपिंग से भी बच गए और ज़लालत से भी| पूरी ट्रिप का हिसाब किताब कर डाला गया है…सबको सबका हर्जा खर्चा बताके मामला रफादफा कर दिया गया है…पाई पाई जोड़ के हम लोग ऐश करके आये हैं…(यहाँ पाई का मान ३.१४१६ नहीं है Smile )
और जाते जाते कुछ पंक्तियाँ जो जेहन में उतर गयी हैं वो भी लिख डालता हूँ…
“लोग आते रहेंगे, लोग जाते रहेंगे,
कायम रहेगी बस वो खूबसूरती,
जो रौनक है तेरे दिल में भी, मेरे दिल में भी"
--देवांशु
(इस पोस्ट में लगी पिक्स किसी के भी कैमरे से ली गयीं हों, हौंसला हरी भाई का ही है)

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

फर्जी पोस्ट…

      (इस कहानी को कृपया कमजोर हृदय वाले लोग पढ़ने की कोशिश ना करें, बल्कि पूरा पढ़ें |  बाकी भी पूरा पढ़ सकते हैं| इस कहानी में ड्रामा है, ट्रेजडी है, कॉमेडी है, नाच-गाना भी जबरदस्ती में घुसेड़ दिया गया है…)

     हाँ तो दरसल मैं उनलोगों से मुखातिब हूँ जिन्होंने मेरे सामने वाली खिड़की में रहने वाले चाँद के टुकड़े में बेशुमार और बेहिसाब इंटरेस्ट दिखाया था |  तरह तरह के सवाल पूंछे गए हैं मुझसे…कौन है? कैसी है? फोटो-वोटो भेजो जरा हम भी देखें, अकेले मजे ले रहे हो…

    तो लो सब लोग पढ़ लो…(और ले लो मजा)

आगाज़ :  शाम का सात - आठ के बीच का कोई टाइम हुआ होगा…मैं अपने नए घर में शिफ्ट ही हुआ था | घर पहुंचा ही था कि एक दोस्त का फोन आ गया…बात करते-करते मैं अपने कमरे की खिडकी पे जा खड़ा हुआ| बस वहीँ…ठीक मेरी सामने की खिडकी से वो गुज़री…और महसूस ही नहीं हुआ कि दोस्त  की  आवाज़ फोन पे कब घुन्धली हो गयी..और कब उसने फोन काटा..दुबारा फिर फोन किया और ये कहते हुए फिर फोन काटा “कि जब होश में आ जाना तो खुद ही फोन कर लेना"…तब जाके समझ आया कि दुर्घटना हुई है…खैर!!!! रंग दे बसंती  के  डीजे का डायलोग याद आ गया “मेन्नू प्यार हो गया सि

एक बार फिर प्यार  :   पहली मुलाकात को भूलने में भी टाइम नहीं लगा| और वो इस लिए भी कि ऐसा पहली बार थोड़े ही हुआ है (अब कोई सतरा-अठरा सालों का तो हूँ नहीं, और कौन कहता है कि पहला प्यार नहीं भूलता, जिसको हर गली, हर मोड़ पे प्यार हो जाये, ना तो उसे पहला प्यार भूलते देर लगती है और ना आखिरी…)

हाँ तो दूसरी मुलाकात, वो तब हुई जब मै अपने रूम-मेट्स के साथ अपना लैटर बॉक्स देखने गया| वहाँ पे एक मोहतरमा खड़ी थी…”एक मोड़ आया मैं उत्थे दिल एक बार फिर छोड़ आया" | अबकी नींद तब टूटी जब आवाज़ आयी “तुम्हारा कोई लैटर नहीं आया है"|

जब तक हम चलते, मोहतरमा जा चुकी थी| वो भी अपना लैटर बॉक्स चेक करने ही आयी थीं| मैंने कहा “रुको!!! देखो कौन से नंबर का लैटर बॉक्स चेक कर रही थी" | घर का नंबर पता चलते ही चल पड़े घर पता करने | जब घर पहुंचे तो पता चला..

“जिसे ढूँढा गली-गली…वो घर के पिछवाड़े मिली”

ये वही खिडकी वाली मोहतरमा थी..”सच्चा" प्यार हो गया…तुरंत फेसबुक पे स्टेटस अपडेट किया…

“मेरे सामने वाली खिडकी में एक चाँद का टुकड़ा रहता है...”

अगले २-३ दिन :  सुबह (जल्दी जाग के) और शाम (ऑफिस से भाग के)  की चाय खिडकी पे पीना शुरू…बाद में गिटार  प्रैक्टिस भी खिडकी पे | पर ये तो अमरीका है…यहाँ पड़ोस के कमरे में भी बातें जीटाक पे होती हैं….मेरे प्यार और मेरे गिटार दोनों की आवाज़ उस तक कैसे पहुँचती…और मैं अपने “सच्चे" प्यार को कैसे भूल जाता…मैं जोर (अपना) शोर (गिटार का) से लगा रहा | रूममेट्स को हिदायत दे दी गयी…

“जैसे दिखे तुरंत सिग्नल देना (प्रीतम आन मिलो वाला, दरवाजे पे नाखून बजा के).. समझे!!!”

सिलसिला चलता रहा….

और आ गया वीकेंड :  वीकेंड का वेट वीकेंड खतम होते ही होने लगता है..

“ये मत सोचो वीकेंड में कितनी जिंदगी है…ये सोचो कि जिंदगी में कितने वीकेंड हैं"

पूरा वीकेंड कब गुज़रा..पता ही नहीं चला (कोई नयी बात बताओ) ना वो दिखी, ना खिडकी खुली, ना बत्ती जली (और मैं बन गया भीगी बिल्ली)

bheegi-billi

 

अगला मंडे : जल्दी जागने की आदत के चलते फिर सुबह जा धमका मै खिडकी पे..बस आगे की कहानी ना पूंछो..उसकी खिडकी के आधे हिस्से में काली प्लास्टिक (she is not eco-friendly) और बाकी आधी खिडकी बंद…मैं बहुत खुश हुआ…”किसी ने तो मुझे नोटिस किया"

रूम-मेट्स बोले “वहशी दरिंदे…१० महीने से रोज खिडकी खुलती थी…३-४ दिन में बंद करा दी तूने"

करेंट स्टेटस : एक बार और दिखी है तब से..कार से उतरते हुए…बस्…लेकिन बाकी दुनिया ने पूंछ पूंछ के ढेर कर दिया है उसके बारे में…कसम से ये गाना बड़ा दुःख भरा है…

“ये खिडकी जो बंद रहती है"

वैधानिक चेतावनी : इस कहानी को पढ़ने के बाद अगर किसी ने दुबारा मेरे से चाँद या चाँद के टुकड़े के बारे में कुछ भी पूंछा तो I will sue them in American Court…हर्जे खर्चे के लिए वो खुद ज़िम्मेदार होंगे|  रवि और पंकज   इस बात का विशेष ध्यान रखें…

जाते जाते…एक दुखभरा गाना आप सबको सुनाये देता हूँ…आँसूं संभाल लीजियेगा…

और अगर विडियो और कहानी में लिंक ना समझ आया हो तो नीचे कमेन्ट में अपनी भड़ास निकाल सकते हैं…और अगर आ गया है समझ में, तो भी लिख दो जो मर्जी हो..आखिर पोस्ट फर्जी है ना..…. अल्लाह हाफ़िज़!!!!

--देवांशु

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

अनभिज्ञ…

“तो आल सेट" कहते हुए रिषी ने कागज अपनी डेस्क पर रखे और उसकी तरफ घूम गया|
“या ..आलमोस्ट” सारिका ने जवाब दिया |
“गुड…बट तुम्हारी कैब तो निकल गयी होगी" घड़ी की तरफ देखते हुए रिषी बोला|
“हाँ..सोंचा आखिरी दिन है गुडगाँव में..आज मेट्रो से जाती हूँ"
“ओ हाँ..योर लास्ट वर्किंग डे विध अस"
“हम्म…बट यू नो आज बड़ी अजीब सी फीलिंग है…घर जाने का मन नहीं कर रहा"
“होता है" रिषी ने मुस्कुराते हुए बोला और अपनी कंप्यूटर स्क्रीन की तरफ  मुड़ गया|
२-३ मिनट सन्नाटे के बाद वो फिर बोला…
“इफ यू डोंट माइंड ..कैन आई ड्रॉप यू टू मेट्रो स्टेशन” रिषी ने बोला…
“नहीं चली जाउंगी..”
“ओके..वैसे अगर घर जल्दी जाने का मन ना हो तो यू कैन ज्वाइन मी…थोड़ी देर घूमेंगे एंड देन मैं तुम्हे ड्रॉप कर दूंगा”
“हम्म…बट अगर मैं तुम्हारे साथ फ्राइडे शाम को घूमूंगी तो मेरा ब्वायफ्रेंड मुझे गोली मार देगा…तुम मुझे मेट्रो तक ही छोड़ दो..”
“श्योर..देन आई कांट हेल्प इट” वो हँसने लगा…
तभी रिषी का फोन रिंग करने लगा..
“हेल्लो सर…"
".यस आई एम् इन ऑफिस…"
".बट लीविंग…."
"ओके…लेट मी सी" उसने  फोन रख दिया और फिर अपनी स्क्रीन की तरफ घूम गया|
“क्या हुआ" सारिका ने पूंछा
“थोड़ा सा काम आ गया है गिव मी टेन मिनट..आई विल  ड्रॉप यू आफ्टर दैट”
“कोई नहीं तुम काम कर लो…मै वैसे भी देर से निकालूंगी…भीड़ भी कम हो जायेगी मेट्रो में"
रिषी अपने काम में डूब गया और उसने कोई भी जवाब नहीं दिया| आधा घंटा बीत जाने पे सारिका ने ही बोला..
“तो अब तुम मुझे मेट्रो तक भी नहीं छोड़ोगे”
“क्यूँ"
“मेरा ब्वायफ्रेंड जो है" उसने हँसते हुए बोला…
“नहीं यार..बस हो ही गया ये…यू नो टेन मिनटस् आर नेवर टेन मिनटस् और वैसे भी मेरी गर्लफ्रेंड है ” उसने हँसते हुए जवाब दिया…और फिर फोन पे किसी से बात करने लगा…
“इट्स डन सर..हैव अ गुड वीकेंड..बाय" उसने फोन रख दिया…
“चलो ..अगर मन हो तो" रिषी ने बोला|
“हाँ चलो"
दोनों अपने बैग लेकर पार्किंग में पहुंचे..रिषी ने अपनी कार अनलाक की..कार में बैठते ही सारिका ने बोला..
“सही है बॉस आते ही कार शार”
“हाँ यार..बड़ा मन था अपनी कार का..२ महीने पहले से बुक करवा रखी थी”
“गुड है" सारिका ने बोला
“वैसे हमारी फोर्मल हाय हेल्लो ही हुई है…बाकी बाय बोलने में स्टेशन आ जायेगा….अगर थोड़ा टाइम हो तो घूम के चलें ..ठीक से बाय बोल लूँगा" रिषी ने कहा कार बाहर निकालते हुए
“ठीक है" सारिका ने कहा…
कार सड़क पे आ गयी..बारिश गिरने लगी थी धीरे-धीरे….रिषी एक-एक करके सड़के बदलता रहा और दोनों आपस में बातें करते रहे…
“तो फिर कब से ज्वाइन करनी है नयी कंपनी" रिषी ने पूंछा
“दो वीक का ब्रेक ले रही हूँ..पांच साल कब बीत गए पता ही नहीं चला…थोड़ा टाइम घर वालों को भी दिया जाये"
“सही है..कितना टाइम बिताया यहाँ…ओह्ह सॉरी मै तुम्हारी फेयरवेल पार्टी में नहीं आया" रिषी ने बोला
“तो कम से कम बाय बाय मेल ही पढ़ लेते"
“सॉरी..मनडे पढूंगा…पक्का"
“५ साल ..पूरा करियर यहीं का है"
“तभी..यू वर नोस्टेलिजिक"रिषी बोला…
“हाँ …एनी वे…मौसम अच्छा है एफएम ऑन करते हैं"..कहते कहते उसने एफएम ऑन कर दिया..गाना चल रहा था “रिमझिम गिरे सावन"
“सुलग सुलग जाये मन" सारिका ने गुन गुनाया
“लाइक शोर्ट सर्किट" रिषी बोला
“हाउ फनी" सरिता ने उखड के कहा…
“सीसीडी चलें ..इतने अच्छे मौसम में काफी तो बनती है"
“कहीं चाय पीते हैं…सड़क के किनारे..”
“ओके" कहते हुए रिषी ने गाड़ी मोड दी
                                                           *****
गुडगाँव में सिटी सेंटर के ठीक बहार एक लंबा स्ट्रेच है ..घूमने के लिए…उसके आस पास कई रेहड़ी वाले खड़े रहते हैं…गाड़ी को पार्क करके रिषी ने चाय खरीदी और वहीँ घास के पास एक पत्थर पे दोनों बैठ गए…बारिश अभी भी गिर रही थी…
“अजीब शहर है ये..खुद में खोया हुआ…यू नो मुंबई वाली बात नहीं है" रिषी बोला
“पर अच्छा लगता है मुझे…पूरी लाइफ इसी के आस पास बीती है…” फिर सन्नाटा.थोड़ी देर बाद रिषी ने ही पूंछा
“तो क्यूँ छोड़ी कंपनी"
“ऐसे ही काफी टाइम हो गया था…पर पता है मेरी ड्रीम कंपनी थी…तभी बुरा लग रहा था..”
“होता है…बड़े बड़े शहरों में ऐसी छोटी छोटी बातें…”
बीच में टोंकते हुए सारिका बोल पड़ी “तुम्हारे बारे में सब सही कहते हैं..हर टाइम बकवास कर सकते हो तुम…खुद से बोर नहीं हो जाते"
“शाहरुख करता है तो सही है , मै करूं तो बकवास…तुम लड़कियां भी ना"
“ओह्ह तो ये बात है…चलो नहीं कहती बकवास”
“अब ठीक है…तुम्हे मेल करूँगा…फेसबुक पे तो होगी ही तुम…”
“मेल कैसे करोगे"
“तुमने बाय बाय मेल में अपनी आईडी दी होगी ही…” रिषी को लगा उसने कोई इंटेलिजेंट जवाब दिया|
“जानती हूँ कोई रिप्लाई नहीं करेगा…वही आईडी दी है जो मै कभी कभी ही चेक करती हूँ..” सारिका ने बोला..
“सही है..फिर अपनी सही आईडी डे दे दो"
“क्या करोगे…कल से तो मैं वैसे भी कहानी ही हो जाउंगी…”
“ये भी सही है…”
और दोनों ऐसे ही चुप हो गए…काफी देर बाद रिषी ने बोला…
“सारिका !! आई थिंक तुम्हारे जाने का वीक और मेरा आने का वीक एक ही था..तुम्हारे साथ काम करता तो मजा आ जाता…”
“हाँ तुम इतने बकवास भी नहीं हो जितना लोग कहने लगे हैं" हंसी मिली हुई थी आवाज़ में…
“हम्म…वो क्या है ना मुझे चुप रहना बिलकुल पसंद नहीं…कुछ ना कुछ बोलते रहो या सुनते रहो…”
“कुल मिला के शांति पसंद नहीं है तुम्हे" सारिका ने बोला…
“ऐसा नहीं है मंदिरा बेदी काफी पसंद है मुझे” रिषी ने एक अजीब सी मुस्कान चेहरे पे खींची…
“ओह माय गोड…तुम एक दम ..” सारिका ने अपना सर पकड़ लिया..
“कोई नहीं ..पर पता नहीं क्यूँ तुम्हे सॉरी बोलने का मन कर रहा है…” रिषी बोला
“क्यूँ"
“ना मैं तुम्हारी फेयरवेल पे आया, ना गिफ्ट के पैसे ही दिए मैंने…और झूंठ भी बोला तुमसे"
“कैसा झूंठ"
“यही की मेरी गर्लफ्रेंड है"
“हम्म…कोई नहीं बड़े बड़े देशों में….” और दोनों फिर हँसने लगे…
“चलो तुम्हें घर तक छोड़ देता हूँ…अब क्या जाओगी मेट्रो में” उसने घड़ी की तरफ देखा…रात के साढ़े नौ बज रहे थे…
“काफी लेट हो गया है..चलते हैं" रिषी ने ही बोला…
“चलो…”
एक बार फिर से दोनों कार में बैठे…सारिका कुछ चुप सी थी..ख़ामोशी भरी हुई थी कार में…फिर से एफएम ऑन किया…बारिश के गाने अभी भी चल रहे थे…और काफी देर तक गाने ही चलते रहे..
“बड़ी शांत हो गयीं" रिषी ने बोला…
“ऐसे ही…कुछ अच्छा सा नहीं लग रहा” सारिका ने कार से बाहर देखते हुए बोला….
“इतना अच्छा मौसम और तुम्हे अच्छा नहीं लग रहा है"…
फिर ख़ामोशी…
“तुमने मुझसे झूंठ क्यूँ बोला…” सारिका ने पूंछा
“ऐसे ही… शायद मुझे अच्छा नहीं लगा की तुम्हारा ब्वायफ्रेंड है…पर एक बात बताओ तुम्हारा ब्वायफ्रेंड तो बड़ा केयरलेस है यार..इतनी देर से तुम्हे कॉल ही नहीं किया…”
“ह्म्म्म" सारिका ने एक गहरी सांस ली…
“क्या ह्म्म्म"…बोलो ना…
“एक झूंठ मैंने भी बोला था….”सारिका ने जवाब दिया…
“व्हाट…..” रिषी ने चौंक के सारिका की ओर देखा….पर इससे पहले की वो और कुछ बोल पाता एफएम की आवाज़ को सारिका ने बहुत ज्यादा बढ़ा दिया…गाना ऊंची आवाज़ में बजने लगा…
बजता है जलतरंग, टीन की छत पे जब, मोतियों जैसा जल बरसे"….
कार भीगती रात में दौड़ी चली जा रही थी….
--देवांशु

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

गए तुम गए…..क्यूँ ?

       नदी बड़ी शांत है…बहुत धीमे धीमे बह रही है…शाम हो रही है…चाँद खिलने को तैयार है…नदी के किनारे पड़े पत्थरों पर बैठ अपने पैरों को डाले हुए एक लड़का और लड़की बैठे हुए हैं..लड़का नदी को घूर रहा है और लडकी उसके कंधे पे सर रखे हुए आस पास के कंकडों को नदी में डालती जा रही है….कहीं दूर माउथ ओरगन पे कोई कुछ बजा रहा है…धुन में रस भी श्रंगार है…संयोग श्रंगार…
“कितना अच्छा बीत रहा था ना सब कुछ" लडकी ने कहा…
“हाँ" एक लंबी सांस भरते हुए लडके ने जवाब दिया…
अचानक लडकी ने अपना सर कंधे से हटाया और उसकी ओर देखने लगी….लडके ने भी उसे देखा…
“अब जब सब सही होने लगा था…तब ये क्यूँ हुआ?” वो बोली…
“पता नहीं”…वैसे का वैसा ही जवाब…
“लव आज कल देखी थी ना? ये लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशनशिप नहीं चल पाती" वो और सीरिअस होते हुए बोली…
“पता है..पर क्या किया जा सकता है"
फिर वही सन्नाटा छा गया…माउथ ओरगन की आवाज़ में थोड़ा दर्द आने लगा है…
“जब तुम जागोगे तो मै सोने कि कोशिश कर रही होउंगी…और जब मै जगूंगी तब तुम नहीं सो पाओगे?” उसने कुछ सोचते हुए बोला…
“और फिर जब हमने कल ही डिसाइड किया कि घर वालों को बता देंगे तो तुम्हे आज ही बाहर जाने का ऑफर मिल गया" वो बोलती गयी….
“तो बता देते हैं…फिर मैं निकल जाऊंगा"
“तुम्हे क्या लगता है बस केवल बताना ही है क्या?  मै तुमसे अलग अब नहीं रह सकती" उसका चेहरा उतर गया…
“दो जिस्म एक जान टाइप" उसने माहौल को थोड़ा हलका करने कि कोशिश की…
पर कोई जवाब नहीं आया…तो बोला…
“ठीक है मै थोड़ा डिले करावा लेता हूँ…ठीक है???” एक बार फिर सन्नाटा…
“नहीं मेरे को लगता है तुम्हे जाना चाहिए….आई विल मैनेज”
“आर यू श्योर"
“हम्म"..इस बार आंसूं नहीं रुके…
लडके ने उसे प्यार से बाँहों में भर लिया….
“एक साल ..बस एक साल…फिर हम तुम एक साथ…”
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लडकी ने भी सर हिला कर हामी भरी….दोनों एक दूसरे के हाथों में हाँथ डालकर चल दिए….माउथ ओरगन अभी भी बजता रहा…संगीत में आवाज़ कम थी दर्द ज्यादा था…
--देवांशु

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

ये पोस्ट थोडा पहले आनी थी…

बात १९९८ की है..भारत की आज़ादी की ५०वीं सालगिरह मनाई जा रही थी..मेरे शहर में भी ये बड़े धूमधाम से मन रही थी...वो शहर कवियों का ही लगता है…वरना बच्चों के लिए कवि सम्मलेन कहीं हो सकता है …और अगर होता भी है तो कविता पढाने का…पर यहाँ रूल ये था की कविता भी उसकी खुद की होनी चाहिए…
मन बहुत था की पार्टिसिपेट किया जाये…पर कविता?? कक्षा १० तक तो केवल पढते थे..लिखने की बात तो बहुत दूर थी…पहली बार ऐसा लग रहा था की कुछ है जो कर नहीं सकते (उसके बाद बहुत बार लग चुका है की कुछ  कर नहीं सकते, तब लिखने की कोशिश की थी, अब इग्नोर कर देते हैं)….
मेरे हिंदी के टीचर थे श्री शुभकर नाथ जी शुक्ल, खुद में भी वे अच्छे कवि थे…और पढाते भी बहुत बढ़िया थे…हिंदी भी गणित की तरह टिप्स पे आ चुकी थी..वो भी श्री रामधारी सिंह दिनकर के बड़े फैन थे और मै भी बन गया था (आज तक हूँ)
हाँ तो तय ये हुआ की मै खुद  ही कविता लिखूंगा और आचार्य जी (हम टीचर को आचार्य जी ही बुलाया करते थे)  उसमे अपने इनपुट्स देंगे और फिर वो कविता मै पढूंगा…
३-४ दिन की मेहनत के बाद मै कुछ ८-१० पंक्तियाँ उनके पास लेकर गया…उन्होंने एक नज़र उस और देखा और पन्ना अपने पास रख लिया…और बोले “थोडा बदलाव करने पड़ेंगे…कल देता हूँ ठीक करके..”
उनके चेहरे से लग रहा था की मन ही मन सोच रहे होंगे “ये विज्ञान पढ़ने वाले मानेंगे नहीं..हर जगह एक्सपेरिमेंट करते रहते हैं"
अगले दिन मै उनके पास जा पहुंचा…उन्होंने अपनी जेब से वो पन्ना निकला और बोले देख लो थोडा सही किया है…
थोड़ा??? पूरी कविता ही नयी थी…विचार कुछ कुछ वही ,कहने का तरीका एक दम अलग …मै बस देखता रह गया…मैंने कहा “ अपने तो पूरी नयी कविता लिख दी”…वो बोले “हाँ थोड़ा बदलाव करना पड़ा….पर तुमने लिखने की कोशिश तो बहुत अच्छी की है…तुम ज़रूर जीतोगे"
खैर मैंने जैसे तैसे वो कविता याद कर डाली और सुना भी दी…मै जीता तो नहीं पर आचार्य जी का आशीर्वाद मुझे ज़रूर मिला…उस भरी भीड़ में भी मैं उनको देख पा रहा था…शायद मैं डर जाता और कुछ न बोल पाता अगर वो वहाँ न होते उस समय….
कल रात “रश्मिरथी" समाप्त करने के बाद मुझे उनकी याद आ गयी…१०वीं की बोर्ड परीक्षा के बाद मैं उनसे आजतक नहीं मिला हूँ, न उनका कोई नंबर है मेरे पास…उम्मीद है की मैं फिर कभी ज़रूर मिलूँगा…
फिलहाल यहाँ लिख रहा हूँ वही कविता जो मुझे आजतक बिना रुके पूरी तरह याद है…
जगना होगा आज हमें यदि भारत कहीं बचाना है,
सोते हुए जवानों फिर से भारत आज जगाना है,
बढती जातीं ऋण की चोटें, देश टूटता जाता है,
आज हमारा नेता इसकी लाज लूटता जाता है|
 
बंद करो नाटक जो होते, अब समय बीतता जाता है,
जो इतिहास देश का अपना, ह्रदय बेधता जाता है,
ले संकल्प पुनः भारत को विश्व गुरु बनवाना है,
१५ अगस्त पर आज यही व्रत हम सबको अपनाना है |

ये कविता आप ही की है आचार्य और आपको ही समर्पित है….
--देवांशु

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

रश्मिरथी : भूमिका से

राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह “दिनकर” जी  की वैसे तो कई महान कृतियाँ हैं परन्तु “रश्मिरथी” और “कुरुक्षेत्र” मेरी सबसे पसंदीदा रचनाओं में से एक है | अभी कुछ दिनों पहले एक बार फिर पढना शुरू किया है “रश्मिरथी” को | आज उसी की भूमिका. जो दिनकर जी ने स्वयं लिखी है , के वे अंश जो मुझे सबसे अभिक प्रिय लगे | भूमिका पूरी ही प्रशंशनीय है और इसके आलावा मेरा कहना तो सूरज को दिए दिखने जैसा होगा |
अपने काव्य कि भूमिका में “दिनकर" जी ने सन १९५० के आस-पास कुछ ऐसी बातें लिखी हैं जो अब जाके हमारे समझ आनी शुरू हुई हैं शायद…और वो भी पूरी नहीं..
काव्य लिखने के कारणों के बारे में भी दिनकर जी ने चर्चा कि है भूमिका में
बात यह है कि कुरुक्षेत्र कि रचना कर चुकने के बाद ही मुझमे यह भाव जगा कि मैं कोई ऐसा काव्य लिखूं जिसमे केवल विचारोत्तेजकता ही नहीं, कुछ कथा-संवाद और वर्णन का भी महात्म्य हो |
साथ ही विदेशों में हो रही काव्य रचनाओं से पडने वाले हिंदी साहित्य पे प्रभाव से दिनकर जी काफी आहत दिखे हैं
परम्परा केवल वही मुख्य नहीं है जिसकी रचना बहार हो रही है, कुछ वह भी प्रधान है जो हमें अपने पुरखों से विरासत में मिली है, जो निखिल भूमंडल के साहित्य के बीच हमारे अपने साहित्य की विशेषता है”
पर वो कविता के प्रारूप बदलने का सारा कारण इसे ही नहीं बताते हीं वे लिखते हैं..
विशिष॒टीकरण की प्रक्रिया में लीन होते होते कविता केवल चित्र, चिंतन और विरल संगीत के धरातल पर जा अटकी है"
कर्ण को लेकर साहित्य रचना का कारण स्वयं उन्होंने ही सामाजिक समता के लिए किये गए प्रयास की संज्ञा दी है | कभी मैंने भी पढ़ा था कि देश एक जंजीर कि तरह होता है और जंजीर कि मजबूती उसकी सबसे कमज़ोर कड़ी निर्धारित करती है| 
यह युग दलितों और उपेक्षितों के उद्धार का युग है | अतएव यह स्वाभाविक है कि राष्ट्र-भारती के जागरूक कवियों का ध्यान उस चरित कि ओर ले जाया जाये जो हजारों वर्षों से हमारे सामने उपेक्षित एवं कलंकित मानवता का मूल प्रतीक बनकर खड़ा है|”
सामाजिक समता के महत्त्व को उन्होंने तब जाना था| और ये भी माना था की देश कि उन्नति के मूलमंत्रों में से ये एक है|  एक नए समाज कि कल्पना कि थी और इन्ही प्रयासों का फल कुछ यूँ बयां कर दिया है
“ आगे मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता है, उस पद का नहीं, जो उसके माता-पिता या वंश की देन है| इसी प्रकार, व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है वो उसे मिलकर रहेगा, यहाँ तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे|”

कर्ण को समझना अपने आप में एक युगपुरुष को समझाने जैसा है| दानवीरता और पराक्रम में वो बाकी कुंती पुत्रों कि तरह था और कहीं कहीं तो उनसे बढ़कर था|  पर क्या केवल ये गुण उसे दुर्योधन का साथ देने के लिए माफ कर देंगे| ऐसा भी संभव नहीं है शायद | इसी से जुडी एक बड़ी अच्छी चर्चा ऑरकुट कि एक पोस्ट में पढ़ी जा सकती है|
कुछ भी हो पर कर्ण महान था इसमे कोई भी दो राय नहीं हो सकती| रश्मिरथी का अंत भी कुछ ऐसे ही उदगार से हुआ है…
“समझ कर द्रोण मन में भक्ति भरिये,
पितामह कि तरह सम्मान करिये|
मनुजता का नया नेता उठा है,
जगत से ज्योति का जेता उठा है|”
नमन दोनों को, उस कर्ण जैसे चरित्र को और दिनकर जैसे कवि को…
---देवांशु

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

चलो थोड़ा रूमानी हों जाएँ…


“टिंग टोंग"….दरवाज़े की  घंटी बजी…वो दौड़ती हुई अपने कमरे से निकली…और भाग के दरवाज़ा खोला..बाहर वो खड़ा था…
“तुम आ गए हो नूर आ गया है"…स्वागत कुछ शायराना हो गया
“चलो फिर तीनो बैठ के पिक्चर देखते हैं" …वो बोला …
“पी जे…और तुमसे कोई क्या एक्सपेक्ट कर सकता है" ..उसने चिढते हुए कहा…
“अंदर आने को नहीं बोलोगी'…
“अगर नहीं कहूँगी तों क्या नहीं आओगे"…
“शायद नहीं"
“तो फिर मत आओ"
“कौन है बेटा" अंदर से उसके पापा की आवाज़ आयी …
“कोई है जो आया तो है…पर आना नहीं चाहता"…
****
“कभी-कभी लगता है कि ये जो जिंदगी है ना, किसी कंपनी के नोटिस पीरिअड  की तरह होती  है…पैदा होते ही आप रिजाइन कर देते हो और सिर्फ रिलीज़ डेट का वेट करते रहते हो..अंतर है तो बस इतना कि कंपनी का नोटिस पीरिअड खत्म होने के बाद दूसरी कंपनी में जाते हैं और जिंदगी के बाद पाता नहीं कहाँ…कुछ लोग होते हैं तो इसे एन्जॉय करते हैं..और बाकी बस परेशान होते रहते हैं…."
***
राजेश की  जिंदगी में कुछ नया बहुत कम हो रहा था आजकल…जोइनिंग का वेट बहुत खराब होता है…जान निकाल लेता है…पिता सरकारी ऑफिस में बाबू..माँ एक गृहिणी..अकेली संतान…
शहर पहाड़ों का था और बहुत बड़ा नहीं था | राजेश को पेंटिंग का काफी शौक था …अकसर चला जाता था वादियों में कुछ बनाने, खुश रहता था…
एक दिन कहीं से घूम के लौट रहा था, हाथ में कुछ पोस्टर थे | सामने से किसी ने उसे जोर की  टक्कर मारी…वो गिरते गिरते बचा…वो पलट के कुछ बोलता इससे पहले ही किसी लडकी  की आवाज़  आयी…”देख के नहीं चल सकते"
और वो देखता रह गया…खुले बाल, सुन्दर चेहरा, नशीली आँखें, और होठों के पास एक छोटा सा तिल…
वो कुछ भी नहीं बोल सका..लडकी के हाथ में कुछ बुक्स थीं…वो गिर पडी थीं उसने उन्हें संभाला…और  वहाँ से चली गयी….
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राजेश को अभी भी होश नहीं आ पाया था…वो एक  टक उसे देखता रहा फिर आगे बढ़ने लगा…अचानक उसे ज़मीन पे पड़ा एक कागज दिखा…जो शायद उस लडकी की किताबों से गिरा था…उसने उसे उठा लिया..पर पढ़ पाने की  हिम्मत नहीं थी…उसे सब घूर घूर के देख रहे थे….वो घर की  ओर चल दिया…..
****
“मां मेरी जोइनिंग आ गयी है….५ अगस्त बंगलोर….” उसने घर में घुसते ही बोला…
“चल बढ़िया है..चाय बनाऊं??”…
“नहीं पापा को आ जाने दो..साथ में पियेंगे…”
“ठीक है …मैं पड़ोस में जा रही हूँ ज़रा …”
“ठीक है…”
वो भागते हुए अपने कमरे में पहुंचा…पिछले कई दिनों से बड़ा परेशान सा था…कई बार उस कागज के टुकड़े को पढ़ चुका था…पर कुछ समझ नहीं पाया था…वो सुईसाइड नोट था…जिसमे आज से ४ दिन पहले किसी ने मरने की  बात कही थी…उसने पुलिस को भी बता दिया था…
कुछ दूरी पर एक आदमी ने कूद के जान देने कि कोशिश की थी पर उसे बचा लिया गया था…और ये कागज तो लडकी के पास से मिला था और उसी ने मरने कि बात भी बोली थी शायद …तो ये लैटर  उस आदमी का नहीं था…
वो अक्सर उस सड़क से बार बार गुज़रा पर वो लडकी उसे दुबारा नहीं दिखी…
उसने एक बार फिर कागज पढना शुरू किया…
डिअर पापा एंड ममा,
मुझे आप लोगो से कोई शिकायत नहीं है…पर मुझे लगता है कि मै इस दुनिया पे बोझ सी हूँ…आप लोग मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे..मै बन ना सकी..यकीन मानिये मैंने कोशिश की थी…पर नहीं बन सकी…जीना बेकार सा लगने लगा है…मै मरना चाहती हूँ….और वही करने जा रही हूँ…
                                                                                         स्वीटी.
****
राजेश ने अपनी कम्पनी से रिजाइन कर दिया था…पूरे पांच साल से तो था यहाँ…कहीं और काम करने का मन कर रहा था…
अपने ऑफिस की पेडस्टल को वो खाली करने लगा…जब से इस कंपनी में है इसी डेस्क पे वो बैठता आया है…पता नहीं कब कब के कागज निकल रहे थे…कुछ पुराने रीमबर्समेंट के पेपर, कुछ मेंडेट्री पर बेकाम के सर्टीफिकेशन, कुछ बोरिंग काल्स को सुनते सुनते बनाये गए टेढ़े मेढे से स्केच….कुछ कागज जिनमे “राजेश” ३०-४० बार अलग अलग तरीके से लिखा है…
वो एक एक कर उनको पढता और फिर फाड़ के डस्टबिन में डालता जाता…तभी उसके हाथ वो चिट्ठी लग गयी…वो इसे अक्सर पढता था….स्वीटी नाम  की जितनी भी लडकियां उसे फेसबुक या ऑरकुट पे मिली थी सबको फ्रेंड रेकुएस्ट भेज चुका था…कुछ का जवाब भी आ गया था…कहीं वो उनमे से एक तो नहीं जिनका जवाब नहीं आया था….
उसने वो कागज अपने बैग में रख लिया….
****
“मिस्टर राजेश यू हैव बीन सेलेक्टेड बाई अवर टेक पैनल"….बाहर वेट करते हुए बैठे राजेश से एक आदमी ने बोला…
“देन व्हाट इज द नेक्स्ट प्रोसेस" राजेश ने पूंछा |
“अवर एच आर जेनेर्लिस्ट विल टॉक टू यू"….और उसने उसे दूसरी तरफ जाने का इशारा किया…
इस समय वो एक बरामदेनुमा एक कमरे में था…चारों ओर पारदर्शी कमरे थे…एक कमरे में एक लडकी बैठी हुई थी…चेहरा उसका बालों से ढका हुआ था…हलके नीले रंग की साड़ी…कुछ लिख रही थी…
“ये सारी खूबसूरत लडकियां एच आर में कहाँ से आ जाती हैं" उसने मन ही मन सोचा…
करीब १० मिनट बाद वो बाहर आयी…
“मिस्टर राजेश" कहते हुए उसने सर घुमाया…राजेश के पैर के नीचे से ज़मीन खिसक गयी…वही चेहरा…मन में आया बोल दे “स्वीटी????”
“अनु हेअर..लेट्स  हैव अवर डिस्कसन " वो हाथ मिलाते हुए बोली…वो ठिठक कर रुक गया ..उससे हाथ बड़ी मुश्किल से मिलाया गया…वो उसके पीछे पीछे चल दिया…
बातचीत कुछ आधे घंटे चली….चलते चलते आखिरी सवाल पूंछा उसने “ सो मिस्टर राजेश यू बिलोंग्स टू व्हिच सिटी?”..
“अल्मोड़ा"
“कूल…आई हैव बीन  देअर..नाईस प्लेस"…
उसका मन और पक्का हो गया .. मन किया पूंछ ही ले….पर पता नही क्यूँ वो फिर रुक गया…
“यू कैन वेट आउटसाइड…मीनव्हाइल आई विल शेयर माय फीडबैक एंड देन यू कैन गो फॉर नेक्स्ट राउंड”
उसे कुछ सुनायी नहीं दे रहा था…वो बाहर जाकर बैठ तो गया पर वो उसे ही देखता रहा…और कोई दूसरा कैंडिडेट नहीं था…वो उसे लगातार घूरे जा रहा था..थोड़ी देर बाद वो बाहर आयी|
“लगता है थोड़ा टाइम लगेगा…वान्ना हैव ए कप ऑफ कॉफी ?” उसने बोला…
“श्योर" राजेश में मुह से अचानक निकल गया…
****
“अच्छी जगह है ना जहाँ तुम्हारा घर है" …अनु बोली…
“हाँ" वो उसे बस घूरे जा रहा था…
“कुछ साल पहले वहाँ गयी थी…पहाड़ियां मुझे अच्छी लगती हैं…”
“हर किसी को लगती हैं…कुछ को लाइफ दिखती है…कुछ वहाँ से मरने की कोशिश करते हैं" ये उसकी एक और कोशिश थी कुछ और पता करने की…
"हाँ यार…इन्फैक्ट मैंने मरने का प्लान बना लिया था"….वो बोली…
अब उसके दिमाग में कोई कन्फ्यूजन नहीं रहा…
“स्वीटी" उसके मुह से निकल गया…
“तुम कैसे जानते हो ये नाम?”
उसने अपना बैग खोला और वो लैटर उसके सामने रख दिया…
****
मिलने की जगह एक कॉफी हॉउस तय हुई थी…दोनों लगभग एक टाइम पे ही पहुंचे थे…बातें शुरू हुईं…
“पता है मैं इतने सालों ये सोंचती रही कि शायद वो लैटर मोम डैड को मिल गया था..पर जब मै वापस आ गयी तो वो कुछ बोले नहीं"
“बस केवल ज़रा सी बात पे तुम मरना क्यूँ चाहती थी"
“पता नहीं यार..बस ऐसे ही"
“फिर इरादा क्यूँ बदल दिया?”
“मैं मरने गयी थी…एक पहाड़ी पे बैठी …वहाँ एक आदमी आया…उसे पैसों का बहुत नुक्सान हुआ था …सड़क पर आ गया था…वो भी मरने आया था…ये सब बताते ही वो वहाँ से कूद गया…पर वो एक पेड़ मे फंस गया ..वहाँ कुछ और लोग भी थे…जिनकी मदद से उसे निकाला…थोड़ी देर में उसके घर वाले वहाँ आ गए…वो रो रहे थे…मुझे अपने मोम डैड का ख्याल आ गया…मै वहाँ से भाग के होटल पहुंची…देखा तो वो लोग मेरा ही वेट कर रहे थे…मेरे से कुछ कहा नहीं गया…”
“तुम्हे क्या लगता है कि अगर उन्हें वो लैटर मिल गया होता तो वो तुम्हे ढूँढते नहीं"
“पता नहीं यार…मैंने बहुत ढूँढा पर लैटर मुझे मिला नहीं…तो मैंने भी जिक्र नहीं किया…”
“और अब बताया उन्हें??"
“हाँ कल बताया …तुम्हारे बारे में भी बताया…तुमसे मिलना चाहते हैं"
“क्यूँ"
और वो मुस्कुरा दी…
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“टिंग टोंग"….दरवाज़े की  घंटी बजी…वो दौड़ती हुई अपने कमरे से निकली…और भाग के दरवाज़ा खोला..बाहर वो खड़ा था…
“तुम आ गए हो नूर आ गया है"…स्वागत शायराना हो गया
“चलो फिर तीनो बैठ के पिक्चर देखते हैं" …वो बोला …
“पी जे…और तुमसे कोई क्या एक्सपेक्ट कर सकता है" ..उसने चिढते हुए कहा…
“अंदर आने को नहीं बोलोगी'…
“अगर नहीं कहूँगी तों क्या नहीं आओगे"…
“शायद नहीं"
“तो फिर मत आओ"
“कौन है बेटा" अंदर से उसके पापा की आवाज़ आयी …
“कोई है जो आया तो है…पर आना नहीं चाहता"…
“अंकल नमस्ते” कहता हुआ राजेश सोफे पे बैठ गया …
“आओ बेटा" किचन से निकलती हुई स्वीटी  की माँ ने बोला…
“सुना तुमने पुलिस को भी खबर कर दी थी" बैठते हुए स्वीटी के पापा बोले…
“हाँ ..थोड़ा डर गया था…पर जब अगले १०-१५ दिन तक कोई खबर नहीं मिली ऐसी तो मेरे को लगा या तो मै वाकई इसे बचा नहीं सकता हूँ या सुईसाइड का आईडिया ड्रॉप हो गया है"
सब हँस ही रहे थे  इस बीच वो अंदर से तैयार होकर आ गयी…
“पापा हम लोग थोड़ा बाहर घूम के आयें"…उसने बताया
****
“शादी क्यूँ नहीं की"…..स्वीटी ने पूंछा…
“पता नहीं…कभी कोई मिली नहीं शायद "…राजेश ने जवाब दिया….
“और तुमने….” राजेश ने भी पूंछ दिया…
“सेम हेअर"….और वो हंस दी
“तुम कितना कम बोलते हो ना?” अगला सवाल…
“सुना है जिनके होठों के पास तिल होता  है वो कुछ ज्यादा ही बोलते हैं…” उसने घूम के उसकी तरफ देखा…
“बोलते हैं…बहुत बोलते हैं…पर दिल में कुछ नहीं रखते"….और वो दूसरी तरफ देखने लगी…
कुछ देर का सन्नाटा हुआ….जैसे दोनों अलग अलग दुनिया में हों….
“विल यू मैरी मी" राजेश ने पता नहीं क्यूँ पूंछ लिया और आँखें बंद कर ली….
“आई थिंक पहले आई लव यू बोला जा सकता था” स्वीटी का जवाब आया और दोनों काफी देर तक हँसते रहे….
राजेश कि जिंदगी और नोटिस पीरिअड दोनों रंगीन हो गए….और स्वीटी ने भी रिलीज़ डेट मांगने से मना कर दिया…..
--देवांशु

सोमवार, 18 जुलाई 2011

मेरी रूह भी रहेगी तेरे साथ सदा…

ये एक कोशिश भर है एक अंग्रेजी की कविता को अपने शब्दों में लिखने की, जो कभी मेरे एक दोस्त ने मुझे एस एम् एस के ज़रिये भेजी थी…तब वो पूरी नहीं मिली थी…आज न जाने कहाँ से उसको ढूँढता मैं एक पन्ने पे पहुंचा, जहाँ ये पूरी मिली |
ये कविता सबसे पहले १९३२ में एक कागज के थैले पे लिखी गयी…और लेखिका के कुछ परिचित लोग ही इसे जानते थे…पर धीरे धीरे ये लोगो में फैलती गयी ..पर लेखिका का नाम कहीं गुम हो गया..
करीबन ७० साल तक लोग इसे पढते रहे..१९९५ में बीबीसी के एक सर्वेक्षण में ये ब्रिटेन की सबसे पसंदीदा कविता भी चुनी गयी…उसके कुछ दिनों बाद इसकी लेखिका की जानकारी एक पत्रकार ने दुनिया को मुहैया कराई….

पहले कविता अंग्रेजी में…

DO NOT STAND AT MY
GRAVE AND WEEP
Do not stand at my grave and weep,
I am not there, I do not sleep.
 
I am a thousand winds that blow.
I am the diamond glint on snow.
I am the sunlight on ripened grain.
I am the gentle autumn rain.
 
When you wake in the morning hush,
I am the swift, uplifting rush
Of quiet birds in circling flight.
I am the soft starlight at night.
 
Do not stand at my grave and weep.
I am not there,  I do not sleep.
Do not stand at my grave and cry.
I am not there,  I did not die!
 
Do not stand at my grave and weep.
I am not there,  I do not sleep.
 
I am the song that will never end.
I am the love of family and friend.
I am the child who has come to rest
In the arms of the Father
who knows him best.
 
When you see the sunset fair,
I am the scented evening air.
I am the joy of a task well done.
I am the glow of the setting sun.
 
Do not stand at my grave and weep.
I am not there, I do not sleep.
Do not stand at my grave and cry.
I am not there, I did not die!
          --- Mary Elizabeth Frye
merirooh

कुछ ऐसा शामिल हूँ मै तुझमे,
मेरी रूह  भी रहेगी तेरे साथ सदा|

वो हवा बन आऊंगा जो तेरे करीब से गुजरेगी,
बन जाऊंगा वो  चमक जो तेरी नजर में निखरेगी,
जब दिखे रंगत पीली सरसों की तो मुझे देखना,
मिलूँगा उस बारिश की बूंद में जो तुम पे ठहरेगी |

अल-सुबह जब तुम अपनी उनींदी आंखे खोलोगे,
एक खूबसूरत समां बन तुझको जगाऊंगा,
कभी उड़ती चिड़ियों के झुण्ड बन गुजरूँगा तेरे करीब से,
अँधेरी रात में जुगनू बन तुझको रिझाऊंगा…

मौत तो सिर्फ जिस्म गुमा सकती है,
तुझको मुझसे न कर सकती जुदा,
कुछ ऐसा शामिल हूँ मै तुझमे,
मेरी रूह भी रहेगी तेरे साथ सदा|

एक साज़ हूँ, जो सुन सकते हो तुम,
एक शख्स हूँ, जिसके बन सकते हो तुम,
एक पेड़ हूँ दूर तक फैला सा,
आँख मूँद दो घड़ी, सो सकते हो तुम!!!

किसी शोहरत को पाकर जब तुम,
बैठ देखोगे ढलते सूरज को,
एक मीठी महक बन आऊंगा,
दिन की आखिरी किरन में घुल जाऊंगा…

गैर हाज़िर हूँ खुद की कब्र से मै,
रहा बाकी  बहुत जो करना है  अदा,
कुछ ऐसा शामिल हूँ मै तुझमे,
मेरी रूह भी रहेगी तेरे साथ सदा|
                                                  -देवांशु 


“शब्दों का अनुवाद हो सकता है भावनाओं का नहीं और न ही उसकी कोशिश है”

कविता के बारे में जानकारी विकिपीडिया से

विशेष धन्यवाद शुशांत और पंकज का


रविवार, 17 जुलाई 2011

कभी कभी ऐसा भी...होता है जिंदगी में…

ऑफिस के पीछे का ये एरिया मुझे ऑफिस से भी अच्छा लगता है…कच्ची ज़मीन…थोड़ी-थोड़ी जगह घेर के बनाई गयी कुछ कच्ची पक्की दुकाने…चाय, मैगी, पकोड़े,पराठे,इडली, डोसा और न जाने क्या क्या…सब मिलाता है यहाँ पे…कुछ ऑटो भी आके खड़े हो जाते हैं…उनपे चलते हुए उदित नारायण की आवाज़ के गाने…ऐसा लगता है की यू पी के किसी रेलवे स्टेशन पर पहुँच गए हैं…ऑफिस घर से ज्यादा दूर नहीं है तो अक्सर रात में मैं भी यहाँ आ जाता हूँ… पूरी रात खुली रहती है ये जगह…
बरसात की सूखी रात…पानी बरसने को था पर बरसा नहीं था…शाम फ्राईडे की थी…तो मौसम खुद ही अलग हो गया था…मैं अपने एक दोस्त के साथ एग-रोल खाने वहाँ आ गया …एक और खास बात है इस जगह की…ये अपने आप में एक छोटा भारत है…हर मजहब के , अमीर गरीब, छोटे बड़े सब मिलते हैं यहाँ….थोडा टाइम लग रहा था…तो वहीँ पास पड़ी एक कुर्सी पे हम दोनों बैठ गए…
JanakiChatti03_Oilpainting_3कुर्सियां एक होटल वाले ने बिछा रखी थी…वो हर चीज़ जो एक आम इंसान खा सकता है वहाँ मिलती थी…दाल, रोटी, चिकन,  चावल सब कुछ….लोग आ रहे थे, खा रहे थे और जा रहे थे…हमारे सामने भी कुछ और लोग आ के बैठ गए…
२ दोस्त..फिल्मों से काफी प्रभावित..”देल्ही बेल्ली ने तो बवाल कर दिया यार, मज़ा आ गया…कल देखते हैं जिंदगी न मिलेगी दोबारा"…१ थोडा सा अधेड उम्र का इंसान…कुछ ज़माने से भडका हुआ….और १ गार्ड जो अभी शायद अपनी ड्यूटी खतम करके आया था…
एक दाल मखानी और ६ रोटी …दोनों दोस्तों की डिमांड आयी…एक शाही पनीर और बटर रोटी…ज़माने से परेशां शख्श ने बोला….और गार्ड मेनू देख रहा था.. डिसाइड करने के लिए….
***
दोनों ने कॉलेज साथ में किया था…ऑफिस भी पास ही था…एक ज़माने के रूम मेट आज वीकेंड फ्रेंड बन गए थे….एक अलग सुकून था मिलता दोनों को साथ में…ऑफिस के अपने मैनेजर को गलियां देना हो, किसी नयी टेक्नोलोजी के बारे में बात करना हो या किसी फिल्म की बात करनी हो…दोनों कभी बोर नहीं होते थे…एक और चीज़ थी जो दोनों को जोड़ती थी…”बीयर"..दोनों को बहुत पसंद थी…
शाम से लग रहा था की बारिश होगी…पर हुई नहीं थी…फ्राइडे ऑफिस से निकलते ही दोनों जगह डिसाइड करते थे…आज भी वही किया…जम के बीयर पी…११ बजे जब घर जाने की बात हुई तो एक बोला
“ यार आज कुछ सिम्पल खाना खाते हैं…”
“सेक्टर ४५ चलें वहाँ कुछ देखते हैं" दूसरे का समर्थन आया…
“चल"
और दोनों चल दिए…रस्ते में बातें बदस्तूर जारी थी….टोपिक बदल रहे थे….इंटेंसिटी बरकरार थी….दोनों पहुंचे…होटल पर …
“क्या खायेगा" पहल हुई
“दाल रोटी खाते हैं" दूसरा बोला
“चल ठीक है….साले अपना टमी देख देल्ही बेल्ली का मोटा लग रहा है….ऑरेंज जूस पीता है की नहीं???” पहले का जवाब और कमेन्ट आया…
“देल्ही बेल्ली ने तो बवाल कर दिया यार, मज़ा आ गया…कल देखते हैं जिंदगी न मिलेगी दोबारा” दूसरा एक बार फिर बोला…
“हाँ यार…भईया एक दाल मखानी और ६ रोटियां देना"
और वो दोनों वहीँ बैठ गए जैसे और कोई वहाँ बैठा ही न हो….और बातें एक बार फिर शुरू….
सामने वाले साहब ने भी शाही पनीर और बटर रोटी मंगा ली थी…हाथ धोने का पानी ढूंढ रहे थे सब…तभी वहाँ एक गार्ड आया….उसने मेनू मांगा और उसे देखने लगा…..
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घनश्याम सिंह शहर के एक बड़े प्रोपर्टी डीलर के यहाँ काम करते हैं…भरा पूरा परिवार है…गर्मियों की छुटियाँ खतम ही होने वाली हैं…गाँव से बराबर फोन आ रहा है बीवी का की आकार ले जाओ…कल वो भी जा रहे हैं…
सोचा फ्राइडे शाम थोड़ी और अकेले एन्जॉय कर ली जाये…थोडा देर से निकले आज..आ गए वो भी होटल पे…रस्ते में थोड़ी चढा भी ली…आज बजट थोडा ज्यादा था…अंग्रेजी पी…
होटल पहुँच के तुरन्त आर्डर दिया “ एक शाही पनीर और बटर रोटी..मक्खन डाल के”
सामने खड़े लड़खड़ाते दो बन्दों से पूंछा “ हाँथ धोने का पानी कहाँ मिलेगा"
एक बोला “ हम भी वही ढूंढ रहे”
तभी वहाँ एक गार्ड आया ..उसके हाथ में पानी का मग था…सबने हाथ धोए…गार्ड ने मेनू कार्ड मांग लिया….बाकी किसी को उसकी ज़रूरत नहीं थी शायद…
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पिछली बारिश में पानी कुछ ज्यादा ही बरसा था…गाँव के गाँव उजड़ गए थे …राजू का गाँव उजड़ा तो नहीं था..पर वहाँ बचा भी कुछ नहीं था…उसकी शादी होने वाली थी…लडकी के घर वालों ने सब बेच के शादी टाइम पे करने को बोला तो राजू ने मना कर दिया और बोला जब पूरा गांव रो रहा है तो हम खुश कैसे हो सकते हैं….शादी बाद में होगी…
शहर आ गया काफी दिनों तक कुछ करने को न मिला..गाँव से लाए पैसे भी खतम होने पे आये तो एक चाय की दुकान में काम कर लिया…वहीँ पे किसी से जान पहचान हुई तो उसे एक जगह गार्ड की नौकरी मिल गयी ….पूरे २५०० रुपये महीने की तनखाह …अभी १४-१५ दिन हुए हैं उसको नयी नौकरी करते हुए…चाय की दुकान पे काम करते कुछ पैसे बचा लिए थे…उन्हें गिना तो कुल २५० रुपये निकले… ८० रुपये गाँव तक का किराया ..आने जाने का १६० और अगर ३०-४० रुपये घर पे खर्च कर दिए तो कुल २०० ..लौट के आते ही २० दिन के पैसे तो मिल जायेंगे…उसके पास आज ५० रुपये हैं ..खर्च करने के लिए…आज वो खाना नहीं बनाएगा…बाहर ही खायेगा….
वो भी पहुँच गया उसी होटल…पानी का मग लेकर हाथ धोए….लौटा तो ३-४ और लोग पानी का मग ढूंढ रहे थे…वापस आकर उसने मेनू कार्ड माँगा….उसकी जेब के हिसाब से तो केवल वो सादी दाल और ३ रोटियां खा सकता है…. उसने वही मांग लिया…
सामने वाले साहब ने शाही पनीर मंगाया है … राजू को भी वो बहुत पसंद है…अचानक से सामने वाला बन्दा पानी मांगता है और न मिलाने पर खरीदने चला जाता है…तभी सबके आर्डर डेलिवर कर दिए जाते है….पड़ोस में बैठे दो बंदे “शीला की जवानी” गाते हुए रोटी खाने लगते हैं …पर उसका मन तो शाही पनीर में लगा हुआ है…सोंचता है अँधेरा है एक चम्मच निकाल लूं तो कोई क्या जान पायेगा….वो चम्मच उठाता है…पर रुक जाता है….ऐसा लगता है किसी ने उसके हाथ बाँध दिए हों….”शीला की जवानी” थोडा और लाउड हो गया है…तभी सामने वाला बंदा भी  आकर बैठ जाता है|
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हमारे एग-रोल और चाय भी आ गए  थे, हम दोनों भी बाकी ४ लोगो के साथ टेबल पे बैठ के खाने लगे….ऐसी जगहों पर अक्सर गली के कुत्ते भी आकर बैठ जाते हैं…कुछ बचा-खुचा खाने को मिल जाता है उन्हें..बाकी न उन्हें आने वाले कुछ देते हैं न होटल वाले….
एक ऐसा ही कुत्ता मेरे सामने भी आकार बैठ गया…मैंने दुत्कार दिया…मेरे दोस्त ने भी वही किया….वो बाकी दो लड़कों की तरफ बढ़ा…उन्होंने उसे देखा भी नहीं….तीसरे इंसान के पास गया …उनका फोन बज गया था..वो बात कर रहे थे, फुर्सत नहीं थी उनके पास….अंत में वो उस गार्ड के पास चला गया….गाँव में उसके घर से कभी कोई भूका नहीं गया था…पर आज तो उसके खुद के पास ही पूरा नहीं है खाने को….दिल तो उसका किया की एक रोटी दे दे ..पर दे नहीं पाया…मन ने मना कर दिया….उसने अपनी दो रोटियां ज़ल्दी ज़ल्दी खतम की…
तीसरी रोटी का पहला निवाला तोडने ही वाला था की उसके हाथ रुक गए…मन ने उसे खा जाने को बोला पर दिल जीत गया इस बार…उसके हाथ खुल गए ..उसने रोटी कुत्ते को दे दी …वो बोला “किस्मत अपनी अपनी है दोस्त.. अपन पेट फिर कभी भर लेंगे..आज सोने भर को इतना काफी है….”
उठा ..हाथ धोए और पैसे देकर वो वहाँ से चला गया…..घर जाने की खुशी दोहरी हो गयी थी उसकी…
हम सब उसे देखकर चौंके और फिर देखते रह गए…..सूखी रात में भी हम सबके दिल पसीज चुके थे…..

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

जिंदगी रिज़्यूम्ड…

मुंबई बम धमाकों के बाद एक बार फिर से कवायद शुरू हो गयी है ये प्रूफ करने की कि मुंबई कभी थमती नहीं ..मुंबई कभी रुकती नहीं..Local-Trains-925006607-7339245-1_Pointillism_2सभी समाचार चैनलों पर लगातार यही बात…कोई बता रहा है कि कैसे लोकल में भीड़ वैसी है तो कोई बम धमाकों की जगह  के पास बने स्कूल में जाके बच्चों की उपस्थिति की जानकारी दे रहा है…
कुछ ने तो हद्द ही पार कर दी है…लोगो के घरों में घुस गए हैं…”इस दर्द का अंत नहीं" के शीर्षक से भी समाचार हैं…बीच में कुछ व्यापारिक बाध्यताओ के चलते ..कोमर्सिअल ब्रेक …हो रहा भारत निर्माण का नारा भी आ जाता है (यकीनन) …कभी हेल्थ इंश्योरेंश लेने कि बात होती है ( जिंदगी का भरोसा नहीं है)…और कुछ कह रहे हैं कि कूड़े कचरे, पैंट इत्यादि से बचने के लिए अपना लक पहन के चलो....(बम से भी बचायेगी क्या ??? )
कुछ नेता भी गए हैं मौका-ए-वारदात पर , अपने (घड़ियाली) आंसूं बहा के आये हैं…किसी ने बोला है सरकार कि गलती है…कोई कह रहा है कि ९९% तो बचा ले गए …एक हो गया…(९९ का ब्यौरा??? )
प्रधानमंत्री जी ने कहा है कि अमन और शांति कि ऐसी मिसाल कायम करें मुम्बईवासी कि जिसे दुनिया माने (बदहज़मी तक ??)…किसी ने सही कहा था वाकई में इस देश कि आज़ादी भीगती (अगस्त) और गणतंत्र ठिठुरता (जनवरी) है…
अब जो होना है वो तो हो चुका..लेट्स रेज्यूम द “जिंदगी"…आखिर जिंदगी न मिलेगी दुबारा…बड़े जोशीले लगते थे ये शब्द कभी…पर आज लगता है कि कोई जूते मार के भूलने को कह रहा है…पर पंचशील को बनाने वाला और क्या कहेगा…

“हलके हो ३१ महीने बाद जो आये हो,

ज़रा जल्दी आया करो,

देर अच्छी नहीं लगती हमें… "

मैं कभी मुंबई नहीं गया…पर कई को जानता हूँ जो वहाँ रहे हैं ..उनके दिल में बसता है ये शहर…नहीं मालूम इसपे बार बार हमला क्यूँ होता है…मजबूरी को हौसले का नाम देने वालों को अब तो सोचना होगा कि

“क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो “

अगर मुंबई क्षमा कर रही है तो कहीं कोई गरल दब तो नहीं रहा…और कौन जाने उसका क्या परिणाम होगा…
मकसद कुछ भी हो इन हरकतों का …हासिल कुछ भी नहीं होगा…दुनिया को तो उसने ही रंग बिरंगी बनाई है..इसके रंगों को खतम करना भी तो उसी की तौहीन है…
जिंदगी थोड़ी रिज़्यूम अपनी भी हुई है, हफ्ते भर बाद एक बार फिर वही ढर्रे पर चल पड़ी है…
आज बस ऐसे ही लिखने का मन बन गया था..जो भी आया मन में लिख दिया…किसी का मन दुखाने का कोई इरादा नहीं है…
जाते जाते देल्ही-६ से अमिताभ जी की आवाज़ में कुछ शब्द..
 

भगवान सभी मरने वालों कि आत्मा को शांति दे…हिम्मत दे घायलों को जो जूझ रहे हैं अपनी चोटों से … सभी के घरवालों को इससे लडने कि क्षमता …और सद्बुद्धि दे इन नेताओं को कि अब तो ये कुछ करें (आपस में लडने के अलावा)….

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

भीगी तन्हाई…


         ड्राइंग रूम में पड़ी कुर्सी को बालकनी तक वो  खींच के ले आया, हलकी - हलकी बारिश शुरू हो गयी थी..पहाड़ों पे अक्सर शाम को ऐसे ही बारिश होने लगती है…बालकनी की रेलिंग काफी ऊंची नहीं थी..उसके हाथ उस पर आसानी से टिक गए..
         बालकनी से दूर पहाड़ियां दिखती है…दिन में तो लगता है की क्या कोई वहाँ पहुँच भी सकता है? पर रात में जब कोई दूर से  गाड़ी निकलती है तो उसकी रोशनी को देखते ही पता चलता है की इन्सान न जाने कहाँ कहाँ पहुंच गया है…
         एक बहुत बड़ा कैनवास सा  है पहाड़ों का…और उसपे पूनम का चाँद ,जो अभी कुछ दिनों पहले ही बीता है, बीचो बीच में लटका हुआ ऐसा दिखता है मानो किसी चित्रकार ने बड़ी मेहनत से कोई पेंटिंग बनाई है…
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          वो अक्सर गर्मियों में यहाँ आ जाया करता है…शहर से दूर …इस बार थोड़े लंबे ब्रेक पे आया था..किसी से उसे दूर भागना था…साथ में था तो सिर्फ उसका फोन और लैपटॉप, जिससे वो किसी किसी ईमेल का जवाब देता था, कभी फेसबुक भी चेक कर लेता…पर गुमशुदगी में..
          अब उसने पैर रेलिंग पर टिका लिए थे …चाँद अधूरा सा था…बारिश का पानी पैरों पे गिरने लगा था…

“बादलों पे लटके हुए अधूरे चाँद को देखा,

तुम्हारा चेहरा कुछ धुंधला सा है,

एक ज़माना जो गुज़रा अब तुमको देखे हुए…”

        वो वहाँ से उठा, किचन में जाकर एक कप चाय बनाई…लौटते वक्त एक डायरी अपने हाथ में लेकर आ गया…चाय के घूंटों के साथ पन्ने पलटने शुरू किये…नज़र रुकी तो एक फोटो पे ..एक मुस्कुराता हुआ सा चेहरा था उसमे, हाथ को किसी पेड़ की टहनी से लपेट रखा था…आसमानी रंग के कपड़ों में तस्वीर ठीक वैसी ही थी जैसी इस समय पहाड़ियों के बीच हो रही थी…आसमानी बादलों के बीच चमकता चाँद…
       उसने रेलिंग पे पैर रख खुद को एक धीमा सा धक्का दिया…और कुर्सी के साथ खुद भी हलके हलके झूलने लगा…फोटो डायरी के साथ उसके ठीक दिल पे आके ठहरी..उसकी आँखें बंद थीं..होठों पे शायद मुस्कान ही थी…

“दोनों ही लाजवाब हैं, तुम्हारी तस्वीर और मेरा दिल,

एक में तुम हो,पेड़ हैं, मौसम है,

और एक में…बस सिर्फ तुम…”

       कुछ देर पहले एक स्टेटस अपडेट आया था “एन्जोयिंग मैरीड लाइफ..पिक्स विल बी अपलोडेड सून"…तब से उसका दिल टूट सा रहा था…उसे सब पता था पर किसी को भी नहीं बताया था इस बारे में ..बस चला आया था यहाँ…
        कब? कैसे ? किसलिए? सवाल कई थे..जवाब वो जनता था…पर जानना नहीं चाहता था..किसी को बताता भी तो क्या बताता…तभी फोन के घंटी बजी…उसने फोन उठाया..
“हेलो"…
“हाँ यार ठीक हूँ..”….
“हाँ पता है…”
“क्या बताता यार…”
“कल सुबह निकल रहा हूँ…मिलते हैं…”
“नहीं यार..डोंट वरी..आई एम्..फाइन"
“चल ठीक है…थैंक्स फॉर कॉल यार"…
           फोन रख दिया…डायरी और फोटो को संभालते हुए वो उठा…इन्टरनेट कनेक्ट किया.. फेसबुक …उसने अलग अलग पिक्स डाले हुए थे…३-४ दोस्तों ने उसे पहले ही ऑफ लाइन पिंग कर दिया था ...सवाल घूम फिर के एक ही था सबका…
         एक एक करके वो पिक्स देखता गया…एक फोटो पे आके वो रुक गया…कुछ घूरने सा लगा…आंसूं शायद पहली बार ही निकले थे…

कुछ तस्वीरों में सौ आंसूं छुपे हैं,

आज कौन समझेगा इनको,

काश खुद को होता हक तुम्हे भूल जाने का…

       उसने लैपटॉप बंद किया और सोने चला गया…कल फिर उसे कहीं के लिए निकलना था….

-- देवांशु