गुरुवार, 29 सितंबर 2011

गए तुम गए…..क्यूँ ?

       नदी बड़ी शांत है…बहुत धीमे धीमे बह रही है…शाम हो रही है…चाँद खिलने को तैयार है…नदी के किनारे पड़े पत्थरों पर बैठ अपने पैरों को डाले हुए एक लड़का और लड़की बैठे हुए हैं..लड़का नदी को घूर रहा है और लडकी उसके कंधे पे सर रखे हुए आस पास के कंकडों को नदी में डालती जा रही है….कहीं दूर माउथ ओरगन पे कोई कुछ बजा रहा है…धुन में रस भी श्रंगार है…संयोग श्रंगार…
“कितना अच्छा बीत रहा था ना सब कुछ" लडकी ने कहा…
“हाँ" एक लंबी सांस भरते हुए लडके ने जवाब दिया…
अचानक लडकी ने अपना सर कंधे से हटाया और उसकी ओर देखने लगी….लडके ने भी उसे देखा…
“अब जब सब सही होने लगा था…तब ये क्यूँ हुआ?” वो बोली…
“पता नहीं”…वैसे का वैसा ही जवाब…
“लव आज कल देखी थी ना? ये लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशनशिप नहीं चल पाती" वो और सीरिअस होते हुए बोली…
“पता है..पर क्या किया जा सकता है"
फिर वही सन्नाटा छा गया…माउथ ओरगन की आवाज़ में थोड़ा दर्द आने लगा है…
“जब तुम जागोगे तो मै सोने कि कोशिश कर रही होउंगी…और जब मै जगूंगी तब तुम नहीं सो पाओगे?” उसने कुछ सोचते हुए बोला…
“और फिर जब हमने कल ही डिसाइड किया कि घर वालों को बता देंगे तो तुम्हे आज ही बाहर जाने का ऑफर मिल गया" वो बोलती गयी….
“तो बता देते हैं…फिर मैं निकल जाऊंगा"
“तुम्हे क्या लगता है बस केवल बताना ही है क्या?  मै तुमसे अलग अब नहीं रह सकती" उसका चेहरा उतर गया…
“दो जिस्म एक जान टाइप" उसने माहौल को थोड़ा हलका करने कि कोशिश की…
पर कोई जवाब नहीं आया…तो बोला…
“ठीक है मै थोड़ा डिले करावा लेता हूँ…ठीक है???” एक बार फिर सन्नाटा…
“नहीं मेरे को लगता है तुम्हे जाना चाहिए….आई विल मैनेज”
“आर यू श्योर"
“हम्म"..इस बार आंसूं नहीं रुके…
लडके ने उसे प्यार से बाँहों में भर लिया….
“एक साल ..बस एक साल…फिर हम तुम एक साथ…”
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लडकी ने भी सर हिला कर हामी भरी….दोनों एक दूसरे के हाथों में हाँथ डालकर चल दिए….माउथ ओरगन अभी भी बजता रहा…संगीत में आवाज़ कम थी दर्द ज्यादा था…
--देवांशु

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

ये पोस्ट थोडा पहले आनी थी…

बात १९९८ की है..भारत की आज़ादी की ५०वीं सालगिरह मनाई जा रही थी..मेरे शहर में भी ये बड़े धूमधाम से मन रही थी...वो शहर कवियों का ही लगता है…वरना बच्चों के लिए कवि सम्मलेन कहीं हो सकता है …और अगर होता भी है तो कविता पढाने का…पर यहाँ रूल ये था की कविता भी उसकी खुद की होनी चाहिए…
मन बहुत था की पार्टिसिपेट किया जाये…पर कविता?? कक्षा १० तक तो केवल पढते थे..लिखने की बात तो बहुत दूर थी…पहली बार ऐसा लग रहा था की कुछ है जो कर नहीं सकते (उसके बाद बहुत बार लग चुका है की कुछ  कर नहीं सकते, तब लिखने की कोशिश की थी, अब इग्नोर कर देते हैं)….
मेरे हिंदी के टीचर थे श्री शुभकर नाथ जी शुक्ल, खुद में भी वे अच्छे कवि थे…और पढाते भी बहुत बढ़िया थे…हिंदी भी गणित की तरह टिप्स पे आ चुकी थी..वो भी श्री रामधारी सिंह दिनकर के बड़े फैन थे और मै भी बन गया था (आज तक हूँ)
हाँ तो तय ये हुआ की मै खुद  ही कविता लिखूंगा और आचार्य जी (हम टीचर को आचार्य जी ही बुलाया करते थे)  उसमे अपने इनपुट्स देंगे और फिर वो कविता मै पढूंगा…
३-४ दिन की मेहनत के बाद मै कुछ ८-१० पंक्तियाँ उनके पास लेकर गया…उन्होंने एक नज़र उस और देखा और पन्ना अपने पास रख लिया…और बोले “थोडा बदलाव करने पड़ेंगे…कल देता हूँ ठीक करके..”
उनके चेहरे से लग रहा था की मन ही मन सोच रहे होंगे “ये विज्ञान पढ़ने वाले मानेंगे नहीं..हर जगह एक्सपेरिमेंट करते रहते हैं"
अगले दिन मै उनके पास जा पहुंचा…उन्होंने अपनी जेब से वो पन्ना निकला और बोले देख लो थोडा सही किया है…
थोड़ा??? पूरी कविता ही नयी थी…विचार कुछ कुछ वही ,कहने का तरीका एक दम अलग …मै बस देखता रह गया…मैंने कहा “ अपने तो पूरी नयी कविता लिख दी”…वो बोले “हाँ थोड़ा बदलाव करना पड़ा….पर तुमने लिखने की कोशिश तो बहुत अच्छी की है…तुम ज़रूर जीतोगे"
खैर मैंने जैसे तैसे वो कविता याद कर डाली और सुना भी दी…मै जीता तो नहीं पर आचार्य जी का आशीर्वाद मुझे ज़रूर मिला…उस भरी भीड़ में भी मैं उनको देख पा रहा था…शायद मैं डर जाता और कुछ न बोल पाता अगर वो वहाँ न होते उस समय….
कल रात “रश्मिरथी" समाप्त करने के बाद मुझे उनकी याद आ गयी…१०वीं की बोर्ड परीक्षा के बाद मैं उनसे आजतक नहीं मिला हूँ, न उनका कोई नंबर है मेरे पास…उम्मीद है की मैं फिर कभी ज़रूर मिलूँगा…
फिलहाल यहाँ लिख रहा हूँ वही कविता जो मुझे आजतक बिना रुके पूरी तरह याद है…
जगना होगा आज हमें यदि भारत कहीं बचाना है,
सोते हुए जवानों फिर से भारत आज जगाना है,
बढती जातीं ऋण की चोटें, देश टूटता जाता है,
आज हमारा नेता इसकी लाज लूटता जाता है|
 
बंद करो नाटक जो होते, अब समय बीतता जाता है,
जो इतिहास देश का अपना, ह्रदय बेधता जाता है,
ले संकल्प पुनः भारत को विश्व गुरु बनवाना है,
१५ अगस्त पर आज यही व्रत हम सबको अपनाना है |

ये कविता आप ही की है आचार्य और आपको ही समर्पित है….
--देवांशु