रविवार, 6 मई 2012

विकी डोनर : पटाखा फिल्लम!!!!

याद है सत्ते पे सत्ता का वो सीन जिसमे अमिताभ बच्चन “दारू पीने से साला लीवर खराब हो जाता है" कहते सुने जाते हैं |  सीन में उनके साथ अमज़द खान भी हैं |  

दर-असल अपनी हिंदी फिल्मों में इस तरह के सीन पुरुषों के खाते में ही आते रहे हैं | पर कुछ दिनों पहले रिलीज़ हुई “विकी डोनर - लाखों में एक” में इस तरह का एक सीन गया है दो महिला किरदारों के खाते  में | जहाँ आमतौर पर सास -बहु लड़ते झगड़ते दिखाई देती हैं , यहाँ साथ में बैठ के “ड्रिंक" कर रही हैं | बहु प्यार से पेग बना रही है | सास पी रही है | बहु भी पी रही है | अपने दुःख दर्द बाँट रही हैं दोनों | पर ये भी एहसास है कि कल जब दोनों की "उतर" जायेगी तो फिर लड़ाई शुरू होगी |

पिछले कुछ सालों में दिल्ली कई फिल्मों में  दिखी है | “ओए लकी, लकी ओए", “लव आजकल",“दो दूनी चार", “प्यार का पंचनामा", ”राकस्टार"  जैसी कई फ़िल्में दिल्ली और आसपास के इलाकों के इर्द-गिर्द बुनी गयी हैं | “विकी डोनर" भी उसी श्रृंखला में आती है | दिल्ली का वो कल्चर जिसमें “पंजाबी" तड़का लगा होता है, इन सभी फिल्मों में देखा जा सकता है | खासकर दिल्ली की शादियों में कार की डिक्की में रखकर दारू की बोतलें खोलना Smile Smile Smile

तो हाँ , ऊपर जिस सीन की बात कर रहा था, वो विकी (आयुष्मान)  की दादी (कमलेश गिल) और माँ (डॉली अहलुवालिया) पर फिल्माया गया है | दोनों पंजाबी वाली अंग्रेजी में बात कर रही हैं | हॉल में तालियाँ बज रही हैं हर डायलोग पे | तभी मेरे रूम-मेट , जो बंगाल से आते हैं (यहाँ पर बंगाल पे ध्यान देना ज़रूरी है), मेरे कान में एक पुराने लतीफे का सार सुना देते हैं “सबसे ज्यादा अंग्रेजी पंजाब में रात ८ बजे के बाद बोली जाती  है” | सभी हंस रहे हैं , हम भी हंसते हैं |

पर ये बंगाली-पंजाबी लड़ाई थोड़ी देर में परदे पर दिखती है | अरे नहीं नहीं, कोई खून खराबा टाइप नहीं है | एक दम मस्त, बिंदास |  हीरो यानी विकी ,पंजाबी है जबकी हिरोइन यानी आशिमा (यामी गौतम) बंगाली हैं | दोनों दिल्ली में रहते हैं | विकी “स्पर्म डोनर" है और आशिमा “बैंकर" है | दोनों में प्यार हो जाता है | शादी को लेकर दो राज्यों को लेकर लड़ाई के जो सीन लिखे गए हैं, उसमे आप पेट पकड़ पकड़ के हंसोगे , पक्का |  विकी आशिमा को “फिश" बोलता है तो आशिमा विकी को “बटर चिकन" |

एमटीवी रोडीज़" से आये चंडीगढ़ के आयुष्मान, वाकई में एक दिल्ली वाले लड़के लगे हैं | और चंडीगढ़ से ही आयी यामी, एक दम बंगाली बाला  | आयुष्मान ने बढ़िया अभिनय किया है  | बातों से नहले पे दहला मारता हुआ, एकदम दिल्ली का लड़का  |  अगर एक सीन को छोड़ दें , जिसमे नायिका नायक से नाराज़ होती है, तो यामी ने भी बढ़िया एक्टिंग करी है | बस एक उसी  सीन में वो चीखती हुई ज्यादा नज़र आयी मुझे |

फिल्म का सबसे असर-दार कैरेक्टर हैं अन्नू कपूर, जिन्होंने डॉ. चड्ढा का रोल प्ले किया है | वे एक मंझे हुए कलाकार हैं, और वो साफ़ झलकता है | फिल्म की बैक-बोन हैं डॉ. चड्ढा | विकी उन्ही की क्लिनिक में स्पर्म डोनेट करता है |  कई जगह तो अन्नू कपूर ने अपनी भाव भंगिमा और डायलोग डिलीवरी से सीन में हंसी का फव्वारा छोड़ दिया है | मसलन स्पर्म बोलते वक्त अपनी दो उँगलियों को हवा में लहराना | लोग हॉल में ही उसे कॉपी करने लगे थे |

फिल्म में बाकी भी कई किरदार हैं, जैसे आशिमा के पिता और बुआ, जो बोलते बोलते बंगाली शब्दों का प्रयोग करते हैं और सीन देखने लायक बन जाता है | विकी के दोस्त और रिश्तेदार भी हैं, जो जगह जगह पे अपनी उपस्थिति दर्ज करा देते हैं | पूरी फिल्म में जिसको जितना भी रोल मिला है , सभी ने तरीके से निभाया है |

तकनीकी पक्ष में, फिल्म की कहानी अच्छी है और स्क्रीनप्ले चुस्त-दुरुस्त | “स्पर्म डोनर" का सब्जेक्ट बहुत सेंसिटिव था और कहानी या स्क्रीन-प्ले में थोड़ी सी भी ढील उसे बेहद बेहूदा बना सकती थी, पर ऐसा नहीं हुआ |  संगीत की खास बात ये है कि अलग से घुसेड़ा हुआ नहीं लगता | खुद आयुष्मान ने भी एक गाना गाया है | फिल्म एक भावनात्मक मोड़ पे खतम होती है, फिर भी हॉल से जॉन अब्राहम को परदे पर देखे बिना आप नहीं निकलोगे |

कुल मिला के मुझे फिल्म बढ़िया लगी |  हॉल में खूब ताली बजाई, जोरजोर से हँसे | विकी, डॉ. चड्ढा , मिसेज़ खुराना ,  विकी की दादी  और फिल्म के डायलोग के चलते फिल्म को दुबारा भी देखा जा सकता है | दुबारा देखने पर भी हंसी आने की पूरी संभावनाएं हैं | Smile Smile Smile

-- देवांशु

शुक्रवार, 4 मई 2012

ए ट्रेन टू पाकिस्तान!!!

राजधानी एक्सप्रेस में एक किताब यात्रियों को मिलती है , जिसमे रेलवे के अतीत और वर्तमान के बारे में बताया जाता है | साथ में एक कहानी भी होती है जो ट्रेनों के इर्द-गिर्द लिखी गयी हो | पिछले साल दो बार राजधानी में सफर किया, दोनों बार एक-एक कहानी पढ़ने को मिली, एक थी रस्किन बोंड  की “टाइगर इन द टनेल" , और दूसरी थी एक कहानी एक गाँव के बारे में , पूरा गाँव ट्रेनों की आवाजाही से खुद को ट्यून रखता था | ट्रेन का आना जाना उनकी दिनचर्या चलाता था | खुशवंत सिंह के प्रसिद्ध उपन्यास “ट्रेन टू पाकिस्तान" का पहला अध्याय है वो कहानी |

जब से पढ़ी वो कहानी,  पूरा उपन्यास पढ़ने का मन था | पर कहीं मिली नहीं या ये कहें कि मन से कोशिश भी नहीं की | फिर पिछले दिनों यहाँ की डिस्ट्रिक्ट लाइब्रेरी में भारतीय लेखकों की किताब ढूंढते ढूंढते मिल गयी |  और पूरे दो हफ़्तों में पढ़ के निपटा डाली | आज उसी किताब के बारे में लिख रहा हूँ |

संक्षेप में कहानी : 
एक प्रेम कहानी है जो भारत-पाकिस्तान के बंटवारे की पृष्ठभूमि में लिखी गयी है | कहानी का मुख्य पात्र “जग्गा बदमाश" है|  वो एक सिख है | वो अपने गाँव की ही एक मुसलमान लड़की , नूरन, से प्यार करता है | गांव का नाम "मनो-माजरा" है | समय १९४७ के सितम्बर के आस-पास का है और जगह जगह धर्म के नाम पर  दंगे भड़के हुए हैं | जग्गा को सूरज ढलने के बाद गाँव छोड़कर जाने की इज़ाज़त नहीं है | पर वो रात के अँधेरे में ही नूरन से मिलने जाता है |  उसी रात उसका एक दुश्मन, मल्ली, गाँव के एक मात्र हिंदू परिवार लाला रामलाल के घर डकैती डालता है और उसका खून कर देता है | 

अगले  दिन गाँव में इक़बाल नाम का समाजसेवी आता है जो गांव के गुरूद्वारे में ठहरता है | लाला रामलाल के खून के सिलसिले में पुलिस जग्गा और इकबाल दोनों को गिरफ्तार कर लेती है |  पुलिस जग्गा से मल्ली बदमाश का नाम उगलवा लेती है और गिरफ्तार भी कर लेती है |

इसी बीच "मनो-माजरा" स्टेशन पर एक ट्रेन आकर रुकती है |  ट्रेन पाकिस्तान से आयी हुई होती है जो लाशों से भरी होती है | दंगे भड़कने का खतरा हो जाता है | शहर के मजिस्ट्रेट “हुकुम चंद" एक चाल चलते हैं जिससे वो मुसलमानों को सुरक्षित कैम्प में पहुँचाने में सफल तो हो जाते हैं पर पुलिस को मल्ली बदमाश को छोड़ना  पड़ता है और वो कुछ और लोगो के साथ मिलके "खून का बदला खून" की तर्ज़ पे पाकिस्तान जाने वाली ट्रेन में लोगो को मार डालने का प्लान बनाता है | 

उपन्यास में एक प्रेम कहानी और भी है , मजिस्ट्रेट “हुकुम चंद” और “हसीना" की भी | हसीना पेशे से एक वेश्या है और उस ट्रेन में भी सवार है जो पाकिस्तान जा रही है | हुकुम चंद के कहने पर पुलिस जग्गा और इकबाल को छोड़ देती है | जग्गा को जब ये पता चलता है कि मल्ली ट्रेन में जा रहे लोगो को मारने वाला है और उसी ट्रेन से मनो-माजरा के मुसलमान भी जा रहे हैं जिसमे से एक नूरन भी है | तो वो अपनी जान पर खेलकर मल्ली के मंसूबों को कामयाब नहीं होने देता है | 


उपन्यास  के बारे में :
१९५६ में प्रकाशित हुआ ये उपन्यास, लेखक खुशवंत सिंह के सबसे प्रसिद्ध उपन्यासों में से एक है |  मुझे जो संस्करण मिला वो भारत की आजादी की साठवीं imageसालगिरह पर प्रकाशित विशेष अंक है | इसमे मार्गरेट बौर्के- व्हाइट के लिए कुछ चित्र भी हैं जो उन्होंने १९४७ में बंटवारे के समय लिए थे | चित्र भयावह हैं और इसीलिए  उपन्यास के मुख-पृष्ठ पर ही “विचलित कर देने वाले चित्र" की चेतावनी भी लगी हुई है |

कहानी के अलावा मुझे उपन्यास के दो अंश बहुत बढ़िया लगे | एक तो जिसमे लेखक ने "मनो-माजरा" के लोगों की दिनचर्या और वहाँ से गुजरती ट्रेन की आवाजों का तारतम्य दिखाया है | और दूसरा वो जिसमे खुशवंत सिंह “मानसून" का वर्णन करते हैं | दोनों ही हिस्से थोड़े लंबे ज़रूर लगे हैं पर कहानी के साथ गुंथे हुए हैं | कुछ देर बाद ही उनकी आवश्यकता , जो कथानक के लिए है, समझ आ जाती है | 

चित्र वाकई में  ह्रदय विदारक हैं  | कुछ को देखकर दिल दहल उठता है | मसलन एक वो चित्र जिसमे रेलवे लाइन के पास एक लाश पड़ी है और पास के प्लेटफोर्म से लोग गुजर रहे हैं, किसी को फर्क ही नहीं पड़ रहा है | ज़िंदगी इतनी सस्ती होती दिखती है | एक और चित्र है जिसमे कूड़े के ढेर में  कटा हुआ पैर का पंजा पड़ा हुआ है | एक चित्र में घरों की छत पे गिद्ध बैठे हुए हैं और उसका वर्णन पढ़ के समझ आता है कि वो किस लिए बैठे हुए हैं |


अब अपनी बात :
उपन्यास को पिछले शनिवार खतम किया और अगले दिन इसी पर बनी फिल्म देखी जिसका नाम भी उपन्यास के नाम पर ही है |  यहाँ से वो लिख रहा हूँ जो मेरे दिमाग में चल रहा है |

बंटवारा किसी के लिए अच्छा नहीं हुआ | दिल्ली में बैठे हुकुमरानों ने इसका निर्णय लिया और हजारों लोग उस एक फैसले की कुर्बानी चढ़ गए | ना केवल वो जो मारे गए, बल्कि वो भी जो अपना सब कुछ छोड़ के सरहदों को पार कर गए | ये एक ऐसी त्रासदी थी जिसका भुगतान दोनों देश आजतक भुगत रहे हैं |

खैर इस मुद्दे पर बातें बहुत होती आयी हैं, और आगे भी होती रहेंगी |बात उपन्यास की करते हैं एक बार फिर से, पर अब कहानी के बारे में नहीं , किरदारों के बारे में | देखा जाये तो कोई भी किरदार पूरी तरह से सकारात्मक नहीं है | एक तरफ जग्गा और मल्ली हैं, जो बदमाश हैं | दूसरी तरफ मजिस्ट्रेट और उनका सरकारी ताम-झाम है |  पूरा अपनी मर्जी का मालिक | उसके पास ताकत है पर नीयत नहीं है | या ये कहें कि खुद को “प्रैक्टिकल" होने की दहलीज में बाँध लिया है | इतनी सब ताकत होने के बावजूद पूरा तंत्र दंगे होने के नाम से ही सिहर उठता है | गलत फैसले करता है |


"हुकुम चंद", रंग-रलियों में डूबे हुए हैं | पूरे जिले की जिम्मेदारी है उनपर, वो भी ऐसे समय में जब कुछ भी स्थिर नहीं है , पर उन पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है | उनके सलाहकार भी ऐसे ही हैं | 

एक इकबाल है , समाज सेवी है | लन्दन में पला बढ़ा है |  समान अधिकारों की बात करता है | पर गांव में पूरी तरह फिट नहीं बैठता | टिन के डब्बों में बंद खाना खाता है | लोग उसकी बात सुनते हैं क्यूंकि वो पढ़ा लिखा है | पर जब कुछ करने की बारी आती है तो नशे में धुत होकर सोचता है “The doer must do only when the receiver is ready to receive. Otherwise, the act is wasted” | और सो जाता है |

फिर एक गांव है, जिसमे लोग रहते हैं | उनमे कोई आपस में गिला-शिकवा नहीं है |  दंगों की घटना से डरे-सहमे तो  हैं , पर साथ रहने को तैयार हैं | लेकिन उन्हें बंटना पड़ता है , ना चाहते हुए भी | उनकी गलती बस यही है कि उनकी किस्मत वो नहीं, दिल्ली में बैठे लोग तय करते हैं |  मल्ली और उसके साथी भी फायदा उठा कर घरों को लूटते हैं और उनको पुलिस का संरक्षण भी मिलता है | पर जग्गा का प्यार जाग उठता है | वो बदमाश है पर फिर भी उसमे दिल है | प्यार हुकुम चंद को भी हो जाता है हसीना से | पर ना तो वो उसे पाकिस्तान जाने से रोक पाते हैं और ना उन लोगो के खिलाफ भी कुछ  कर पाते हैं जो ट्रेन में लोगो को मारने जा रहे हैं |

कुल मिलाके , जिसके पास जितनी शक्ति है वो उतना कमज़ोर बना हुआ है | ठीक वैसा जैसा हम आज तक देख रहे हैं | ये उपन्यास इसलिए भी एक अलग अहमियत रखता है क्यूंकि इसमे हम बीते कल में हुई गलती देख सकते हैं | उस कमी को देख सकते हैं जो आज़ादी लेते समय रह गयी | वो कमी जो आजतक लोगो को बड़े-छोटे, अमीर-गरीब में बांटती रहती है | वो कमी जो आजतक लोगो को देश से पहले खुद के बारे में बार बार सोचने पर मज़बूर करती रहती है | 

ऐसा नहीं था कि मनो-माजरा के मुसलमानों को पाकिस्तान जाना ज़रूरी था क्यूंकि गांव का माहौल खराब था ही नहीं | माहौल बिगाड़ा हुकुम चंद के गलत फैसलों ने | और फिर वो खुद ही उसको संभाल नहीं पाए | कहना पड़ा कि जो हो रहा है होने दो, कहाँ तक रोकेंगे | “गोली हुकुम चंद देखकर रुक नहीं जायेगी, वो तो चलेगी ही” ये सोचके खुद नहीं गए और लोगो को मरने के लिए छोड़ दिया |  उपन्यास ये भी बताता है कि चुपचाप जुल्म सहते रहना भी गलत है | गांव के सब लोग अच्छे थे पर चुपचाप रहे , एक साथ खड़े नहीं हो पाए |  नतीजा सबके सामने था |मुझे तो "मनो-माजरा" कोई एक गाँव नहीं पूरा भारत लगा | वही बेफालतू की लड़ाई, अफरातफरी, खून-खराबा | वो काम करना जिसका कोई हासिल नहीं | इंसान की ज़िंदगी की कौड़ियों में कीमत लगाना | 

और आखिर में :
मन में तो बहुत कुछ आ रहा है कि लिखूं, पर शायद वो बात को भटका देगा | वो फिर कभी | फिलहाल इतना ही कि “ट्रेन टू पाकिस्तान" और इस जैसे कई और उपन्यास, कहनियाँ और किताबें पढ़ना इसलिए भी ज़रूरी है कि हमें अपनी गलतियों का एहसास हो | जो बीत गया उसे भुला देना ठीक है पर बिना कुछ सीखे हुए नहीं | इतिहास रोने के लिए नहीं होता केवल, वो भविष्य निर्माण का रास्ता भी दिखाता है | अगर इस तरह का कोई बदलाव अगर पढ़ने वाले में ला सके तो “ट्रेन टू पाकिस्तान" एक असाधारण उपन्यास है |

आजादी की कीमत कई तरह से चुकानी पड़ी है | अहिंसा के मार्ग पर चलकर हमें आज़ादी तो मिल गयी, पर लोगो के एक जुट ना हो पाने का खामियाजा बहुतों को भुगतना पड़ा | रामधारी सिंह “दिनकर" की चार पंक्तियाँ याद आती हैं:
“पातकी ना होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,
पातकी बताना उसे दर्शन की भ्रान्ति है |
शोषण की श्रंखला के हेतु बनती जो शान्ति,
युद्ध है, यथार्थ में भीषण अशांति है |”
                                                                                                           (“कुरुक्षेत्र", तृतीय सर्ग)

मुझे उपन्यास अच्छा लगा,  उसपर बनी फिल्म तो और भी अच्छी | बाकी आपकी पसंद है, समय मिले तो उपन्यास ज़रूर पढ़ें, फिल्म भी देखें | (फिल्म जब बनी थी तो केवल वयस्कों के लिए ही बताई गयी थी, पर आज का माहौल अलग है )
--देवांशु