इकोनॉमिक्स में जब बजट के बारे में पढ़ाया जाता है तो घाटे की अर्थव्यवस्था के बारे में पढ़ाया जाता है | जिसका सार ये होता है कि बजट बनाते वक़्त खर्चों को आय से ज्यादा दिखाया जाता है और बजट में कोशिश की जाती है की इस अंतर को कम किया जाए | इस अंतर को , जिसे घाटा कहते हैं , कम करने के दो तरीके होते हैं :
१. खर्चा घटाओ
२. आय बढ़ाओ
एक देश की अर्थव्यवस्था में खर्चा घटाने में सबसे कारगर तरीके जो भी होते हैं उसमें आखिर में जनता ही पिसती है , एक लोकतंत्र में ऐसे निर्णय "आत्महत्या" ही कहलाते हैं : जैसे सब्सिडी ख़त्म करना इत्यादि | इसलिए सरकारें आय बढ़ाने का काम करती हैं | आय बढ़ाने के दो स्त्रोत होते हैं :
१. टैक्स बढ़ाना
२. नयी करेंसी छापना
दोनों के अपने फायदे नुक्सान होते हैं |
नयी करेंसी छपने पर रिज़र्व बैंक पर दबाव आता है , जिससे मुद्रा का अवमूल्यन होता है | विदेशी मुद्राएं मज़बूत होती हैं | इससे वस्तुओं का आयात महंगा होता है , भारत में खासकर पेट्रोल और डीज़ल का | जो चक्रीय क्रम में महंगाई को बढ़ाता है |
टैक्स बढ़ाने पर ख़ास वर्ग , और भारत की बात करें तो मध्यम वर्ग पर इसका सबसे ज्यादा बोझ आता है | आमदनी पर टैक्स बढ़ता है और साथ ही वस्तुओं की खरीद पर पर भी | बिज़नेस पर असर अलग पड़ता है | पर बाकी फैक्टर काफी हद तक काबू में रहते हैं | इसलिए सरकारें जब घाटा कम करने का प्रयास करती हैं तो एक बैलेंस बनाने का काम करती हैं पर इसमें हमेशा टैक्स बढ़ने वाला पोरशन ज्यादा होता है |
कुल मिलाकर जितना ज्यादा घाटा , मध्यम वर्ग पर उतना दबाव |
अब जो खर्चे होते हैं , उसका बड़ा हिस्सा , कम से कम भारत जैसे देशों में सब्सिडी में जाता है | इसमें सबसे ज्यादा घोटाले भी होते हैं | सब्सिडी से चीज़ें सस्ती होती हैं तो कालाबाज़ारी भी बढ़ती है | कहीं ना कहीं घोटालों और कालाबाज़ारी का ये पैसा सिस्टम से बाहर चला जाता है , जो फिर घाटे का कारक होता है |
इसको रोकने का एक कारगर उपाय "डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर" है | इसमें चीज़ें सस्ती ना करके उसकी सब्सिडी डायरेक्ट खाते में दी जाती है | पैसे को सिस्टम में वापस लाने के लिए डेमोनीटाइजेशन जैसे कदम उठाने पड़ते हैं जिनके अपने अलग फायदे नुक्सान हैं |
कुल मिलाकर खर्चे जितने बढ़ेंगे , नुक्सान , इकॉनमी का होगा और आखिर में देश का होगा | आज या कल पिसेंगे सभी |
अब आते हैं चुनाव में ताज़ा ताज़ा घोषित किये गए मिनिमम आय के वादे पर | ये दो धारी तलवार ही है | जिस १२००० रुपये प्रतिमाह दिए जाने की बात हो रही है , आप खुद सोचिये देश का कितना बड़ा मज़दूर और छोटे उद्यम करने वाला वर्ग है जिसकी आय इससे कम है | उन सबको उस वर्ग में ना भी रखें तो भी एक बहुत बड़ा वर्ग इन कामों को करने की बजाय गरीब रहना ही पसंद करेगा | नतीजा कारखाने में काम करने वाले या तो कम हो जाएंगे या उनका मानदेय बढ़ेगा | मैं मानदेय बढ़ने का पक्षधर हूँ , पर इसका दूसरा प्रभाव ये होगा की सस्ते लेबर की तलाश में कारखाने भारत से बाहर शिफ्ट होने लगेंगे | इसका उदाहरण आईटी सेक्टर से लिया जा सकता है , आज से १५ साल पहले भारत करीब ८०% तक आईटी सेक्टर में था , अब ये संख्या करीब ५०-५२% है |
दूसरा , घाटा बढ़ेगा क्यूंकि खर्चा बढ़ेगा , तो इसका असर कमाई करने वाले , खासकर टैक्स देने वाले वर्ग पर पड़ेगा | टैक्स बढ़ेंगे | पर टैक्स भी एक लेवल तक ही लिया जा सकता है , उसके बाद नयी करेंसी छपनी पड़ेगी , जो घूम फिर के महंगाई बढ़ाएगी |
तीसरा , परोक्ष असर | जितनी महंगाई बढ़ेगी पैसा बैंक निकलकर लोगों के हाथ में जाएगा , नतीजा बैंकों को सर्वाइव करने के लिए , पैसे का इंटेक बढ़ाना पड़ेगा नतीजा सेविंग्स अकाउंट पर ब्याज बढ़ेगा तो लोन भी महंगे होंगे | सेविंग्स पर ब्याज बढ़ते ही निवेश बाजार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा वो अलग |
हो सकता है , शुरुआत में कुछ लोगों को फायदा हो , पर ऐसी योजनाएं बहुत दिन तक सरकार भी चला नहीं पाएगी या फिर उसे देश से बाहर की संस्थाओं से ऋण लेना पड़ेगा | नतीजा फिर वही डूबती अर्थव्यवस्था |
कुल मिलाकर फायदा किसी को नहीं होगा और नुक्सान में पूरा देश रहेगा | हाँ जिनका मकसद सिर्फ सत्ता पाना है ,वो घोटालों तो कभी कालाबाज़ारी से अपना रास्ता बना ही लेंगे |
और अगर आपको ये लग रहा है की मैं ये सब सिर्फ विरोध के लिए लिख रहा हूँ तो २००९ के चुनाव से ठीक पहले ४०,००० करोड़ रुपये की किसान ऋण माफ़ी वाले कदम के प्रभाव देख लीजियेगा |
बाकी आखिर में लोकतंत्र है , मर्ज़ी जनता की होती है | २०१९ का चुनाव दिनोदिन अचरज भरा होता जा रहा है | प्रभु राम आपको सही नेता चुनने की शक्ति प्रदान करें !!!!