एक तो मै बड़ा परेशान हूँ इन रिसर्च करने वालों से, पता नहीं किस किस बात पे रिसर्च किया करते हैं| मैंने अपने एक अपने बड़े काबिल दोस्त से पूंछा…"यार ये रिसर्च क्या होती है बे"…तो उनका जवाब आया.."अबे देखो, दुनिया में बहुत सी चीज़ें जो हैं ना, सब सरची जा चुकी हैं, सरची समझते हो ना बे, मतलब खोजी | हैं, तो, समझे | और जब लोगो कि जादा भुजाएं फड़फड़ाने लगती हैं और चैन नहीं आता है तो वो फिर से उन्हें सरचियाने लगते हैं, इसी को रि-सर्च बोलते हैं|"
हम थोड़ा नाराज़ हो लिए, हमें तो खुद रिसर्चियाने की आदत बचपन से रही है | हम बोले “नहीं मालिक! ऐसा नहीं है, अगर दुनिया में रिसर्च ना हो तो काम नहीं चलेगा, देखो जैसे लोग आइंस्टाइन पे रिसर्च कर रहे हैं, कि उनके पास इतना दिमाग कैसे आया, इससे बहुत लाभ होगा|”
जवाब मिला “अबे आइंस्टाइन को तो हम भी सर्च कर रहे हैं, पता नहीं का का लिख के कट लिए, कुछ करना है तो समाज के लिए, देश के लिए करो, रिसर्च-फिसर्च से कुछ नहीं होगा, समझे बे”
बात के बढ़ जाने पर पिटने का डर था, इसलिए हमने उनको प्रणाम किया और बोले “खैर गुरु कोई बात नहीं, बाद में डिसकसियायेंगे इस मुद्दे पे, अभी चलते हैं|”
१. पानी पीना
२. खून पीना
३. सिर्फ “पीना"
पानी पीना एक ऐसी बेफजूल की प्रक्रिया है जिसके लफड़े में पड़ के इंसान रात को जाग-जाग कर, काम करने के बीच भाग-भाग कर, पानी के जग, गिलास आदि तक जाता है, पानी पीता है, और वापस आ जाता है| जीवन की नीरसता को बढाने में इसी पानी पीने का मुख्य योगदान है| पानी पीने के साथ और भी बड़ी समस्याएं हैं| जैसे : पीने का पानी साफ़ ही होना चाहिए| आदि आदि|
खून पीना, एक “बौद्धिक" प्रक्रिया है, इसमें खून का कोई आदान-प्रदान नहीं होता, ना आपको “ड्रैकुला" बनने की ज़रूरत है, बस जब भी, जहाँ भी मौका मिले, किसी ऑब्जेक्ट को पकड़िये और उसे ज्ञान देने लगिये, चाहे वो सुने ना सुने | थोड़ी देर में वो खुद ही बोल देगा “आगे बढ़ो, काहे खून पी रहे हो"| बस यही वो क्षण होगा जब आप खून पीने में एक्सपर्ट होने की तरफ कदम बढ़ा दोगे | (जैसे मै इस पोस्ट के साथ आपका खून पी रहा हूँ)
सिर्फ"पीना" ही है जो असली पीना है | इस कैटेगरी में व्हिस्की, वोडका, रम आदि पीना आता है| इन्हें पीने पर ही आदमी पीने वाला या पियक्कड़ कहलाता है| इसके बारे में और जानकारी नीचे के हिस्सों में है|
मामला “मार्केटिंग" से जुड़ा हुआ है| दरअसल बाकी युगों में “दारू" के सेल्समैन थोड़े कमजोर थे| सतयुग में देवता लोग समुद्र-मंथन के बाद अमृत के पीछे पड़ गए| लड़ाई में बड़े बड़े लोगो को आना पड़ा, दारू दब गयी इस लफड़े में | द्वापर में तो कृष्ण जी सबकुछ थे, और चूँकि वो खुद गाय प्रेमी थे तो एडबाजी घी की हुई, शराब फिर कहीं कोने में अपना अस्तित्व संभालती रही| कलियुग में बड़े बड़े लोग इसकी मार्केटिंग में कूद पड़े, तो बाकी सब पीछे हो गए|
फिर भी पीना एक सामाजिक बुराई कहलाता है, ऐसा क्यूँ?
ये सब किया धरा है उनलोगों का जो खुद नहीं पीते, अब जब खुद नहीं पीते तो औरों को पीते नहीं देख सकते| और किसी तरह तो पीने वालों या पियक्कड़ों का विरोध हो नहीं सकता था, इसलिए इसे सामाजिक बुराई बता के इसका विरोध करते हैं| पीने को समाजविरोधी बोलना ठीक वैसा है जैसे अंगूर ना मिलने पे कहना कि अंगूर खट्टे हैं|
तो पीना बुरा है या भला?
नो कमेन्ट|
हम थोड़ा नाराज़ हो लिए, हमें तो खुद रिसर्चियाने की आदत बचपन से रही है | हम बोले “नहीं मालिक! ऐसा नहीं है, अगर दुनिया में रिसर्च ना हो तो काम नहीं चलेगा, देखो जैसे लोग आइंस्टाइन पे रिसर्च कर रहे हैं, कि उनके पास इतना दिमाग कैसे आया, इससे बहुत लाभ होगा|”
जवाब मिला “अबे आइंस्टाइन को तो हम भी सर्च कर रहे हैं, पता नहीं का का लिख के कट लिए, कुछ करना है तो समाज के लिए, देश के लिए करो, रिसर्च-फिसर्च से कुछ नहीं होगा, समझे बे”
बात के बढ़ जाने पर पिटने का डर था, इसलिए हमने उनको प्रणाम किया और बोले “खैर गुरु कोई बात नहीं, बाद में डिसकसियायेंगे इस मुद्दे पे, अभी चलते हैं|”
मालिक ने हमें आशीर्वाद दिया और रास्ते में जाते किसी अपने चेले को, जो साइकिल से कहीं जा रहा था, रुकने का आदेश दिया और बोले “हमें घर तक छोड़ दो"| और वो निकल लिए|
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इसके बाद हमारी रिसर्च करने की इच्छा और बढ़ गयी, मुद्दा ढूँढने निकल पड़े, कि कोई तो मुद्दा मिले | पर सारे मुद्दे पे तो कोई ना कोई रिसर्च कर रहा है, कविता से लेकर बढ़ती महंगाई , राजनेता से लेकर अभिनेता, सब पर कोई ना कोई लगा हुआ है| दुनिया भर के मार्केट डूब रहे हैं, रिसर्च का मार्केट तरक्की पे है|
फिर अपने काबिल दोस्त की बात याद आयी “कुछ करना है तो समाज के लिए, देश के लिए करो" | बस हम पता करने लगे कोई उबलता हुआ सामाजिक मुद्दा | बड़े-बड़े अक्षरों में ज्ञान की कुछ बातें लिखी रहती हैं जगह जगह , हमारी नज़र में एक आ गयी:
“शराब एक समाजिक बुराई है"
मिल गया मुद्दा, सोचा कि शराब पे कौन रिसर्च करेगा | हम कर लेते हैं | पर बाद में पता चला, इसपे भी रिसर्च हो गयी है | इसी गम में सोचा थोड़ी पी ली जाय, कुछ राहत मिले शायद| ठीक उसी समय एक आइडिया आया कि क्यूँ ना “पियक्कड़ी" पे रिसर्च की जाय, मामला जम गया और हम लग लिए रिसर्च पे, १५-२० की एक दम दम-निकालू मेहनत के बाद पियक्कड़ी पे हमारा शोध पत्र तैयार हो गया है, छाप रहे हैं उसके कुछ मुख्य-अंश|
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पीना, क्या है पीना?
“पीना" कोई आसान काम नहीं है…बड़ी वैज्ञानिक प्रक्रिया है…पीना कई तरीके का होता है| पीने के कुछ मुख्य प्रकार निम्नलिखित है :१. पानी पीना
२. खून पीना
३. सिर्फ “पीना"
पानी पीना एक ऐसी बेफजूल की प्रक्रिया है जिसके लफड़े में पड़ के इंसान रात को जाग-जाग कर, काम करने के बीच भाग-भाग कर, पानी के जग, गिलास आदि तक जाता है, पानी पीता है, और वापस आ जाता है| जीवन की नीरसता को बढाने में इसी पानी पीने का मुख्य योगदान है| पानी पीने के साथ और भी बड़ी समस्याएं हैं| जैसे : पीने का पानी साफ़ ही होना चाहिए| आदि आदि|
खून पीना, एक “बौद्धिक" प्रक्रिया है, इसमें खून का कोई आदान-प्रदान नहीं होता, ना आपको “ड्रैकुला" बनने की ज़रूरत है, बस जब भी, जहाँ भी मौका मिले, किसी ऑब्जेक्ट को पकड़िये और उसे ज्ञान देने लगिये, चाहे वो सुने ना सुने | थोड़ी देर में वो खुद ही बोल देगा “आगे बढ़ो, काहे खून पी रहे हो"| बस यही वो क्षण होगा जब आप खून पीने में एक्सपर्ट होने की तरफ कदम बढ़ा दोगे | (जैसे मै इस पोस्ट के साथ आपका खून पी रहा हूँ)
सिर्फ"पीना" ही है जो असली पीना है | इस कैटेगरी में व्हिस्की, वोडका, रम आदि पीना आता है| इन्हें पीने पर ही आदमी पीने वाला या पियक्कड़ कहलाता है| इसके बारे में और जानकारी नीचे के हिस्सों में है|
पियक्कड़ क्या होता है?
ये शब्द अक्सर सुनने में मिलता है कि फलां आदमी बड़ा पियक्कड़ है, पर इसकी कोई सोलिड डेफिनिशन ढूँढने पे भी नहीं मिलती| पीते बहुत लोग हैं, पर कोई एक विशेष व्यक्ति पियक्कड़ कैसे कहलाता है? इस बात पे बहुत लोगो के विचार लिए| कोई एक भी विचार पूरी तरह से पूरा नहीं निकला| हार के हम अपने उन्ही काबिल दोस्त के पास पहुँच गए, सवाल दागा | जवाब भी गोली की तरह आया|
“देखो, पीना एक सुपर-सेट है, सुपर-सेट पढ़े हो?”
हम बोले हाँ पढ़े हैं| वो आगे बोले “तो हाँ पीना एक सुपर सेट है, और पियक्कड़ होना सब-सेट, समझे, अब तुम पूंछोगे कैसे, तो बात ये है कि जब आदमी पी के निम्न बातों का पालन करे तो समझ लो वो पियक्कड़ है अन्यथा बस पीने वाला :
- अपने घर से दो गली दूर से ही दरवाजा खोलने की आवाज लगाना|
- रस्ते पे बैठे कुत्तों को प्यार करना, कि तुम ही मेरे सच्चे दोस्त हो|
- बार बार चीख चीख के कहना कि मैंने पी नहीं रखी है|
- पहले तो लड़खड़ाते हुए गिरना नहीं, और गिरना भी तो सीधे नाली में गिरना|
हमने कहा ये तो काफी “आम" आदमी वाली बातें हो गयी, बड़े लोग भी तो पीते हैं, उनमे कोई पियक्कड़ नहीं होता क्या? जवाब मिला “देखो जो पकड़ा जाये वही चोर होता है, बड़े लोग पीते नहीं, शराब को अनुग्रहित करते हैं, और जो पीता नहीं वो पियक्कड़ कैसे हो सकता है| देवदास भी घर छोड़ने के बाद ही पियक्कड़ कहलाया ” हमें अपने सवाल का जवाब मिल गया|
पियक्कड़ होने के मुख्य कारण क्या है?
आदमी पियक्कड़ सिर्फ गम में होता है, खुशी में पीने वाला सिर्फ पीने वाला होता है | गम के तीन अंग होते हैं:
१. क्या
२. क्यूँ
३. किसका
“क्या" से मतलब ये है कि गम किस टाइप का है, प्यार में धोका, काम का झोंका इसके मुख्य दोषी होते हैं| बात बात पे गम हो जाना आम बात है, पर कोई गम “क्यूँ" बड़ा हो जाता है, जिसके कई कारक हो सकते हैं| कारकों का अध्ययन इस विषय सीमा के बाहर है (जैसे भाषणों में मुद्दे की बातें गायब होती हैं)| बस यही “क्यूँ" इंसान को पीने पे मजबूर कर देता है|
“किसका" गम, इसमे मुख्यतया दो ही जवाबदेह वस्तुएँ होती हैं…”नौकरी" और “छोकरी" | जिनके बारे में आपलोगों को बताना वैसा ही है जैसे “सूरज" को “दिया" दिखाना| समझदार लोग हो आप|
जब इंसान इन तीनो कारणों के चक्कर में १-१ पेग लगा लेता है तो उसके बाद ३-४ पेग और लग जाते हैं, बस यहीं आकर वो “पियक्कड़" बन जाता है|
ऐसा क्यूँ कहा जाता है कि “कलयुग में दारू मिली सोच समझ के पी”?
ये सब भ्रम पैदा हुआ कुछ ट्रकों और ऑटो के पीछे लिखे एक मशहूर दोहे के वजह से (इसके रचयिता पे भी रिसर्च होनी चाहिए)
सतयुग में अमृत मिला, द्वापर युग में घी| कलयुग में दारू मिली सोच समझ के पी|
मामला “मार्केटिंग" से जुड़ा हुआ है| दरअसल बाकी युगों में “दारू" के सेल्समैन थोड़े कमजोर थे| सतयुग में देवता लोग समुद्र-मंथन के बाद अमृत के पीछे पड़ गए| लड़ाई में बड़े बड़े लोगो को आना पड़ा, दारू दब गयी इस लफड़े में | द्वापर में तो कृष्ण जी सबकुछ थे, और चूँकि वो खुद गाय प्रेमी थे तो एडबाजी घी की हुई, शराब फिर कहीं कोने में अपना अस्तित्व संभालती रही| कलियुग में बड़े बड़े लोग इसकी मार्केटिंग में कूद पड़े, तो बाकी सब पीछे हो गए|
फिर भी पीना एक सामाजिक बुराई कहलाता है, ऐसा क्यूँ?
ये सब किया धरा है उनलोगों का जो खुद नहीं पीते, अब जब खुद नहीं पीते तो औरों को पीते नहीं देख सकते| और किसी तरह तो पीने वालों या पियक्कड़ों का विरोध हो नहीं सकता था, इसलिए इसे सामाजिक बुराई बता के इसका विरोध करते हैं| पीने को समाजविरोधी बोलना ठीक वैसा है जैसे अंगूर ना मिलने पे कहना कि अंगूर खट्टे हैं|
तो पीना बुरा है या भला?
नो कमेन्ट|
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पूरी रिसर्च स्थान के आभाव (टाइपिंग के आलस) के चलते यहाँ प्रकाशित नहीं की गयी है| जल्द ही देश के अग्रणी विश्वविद्यालयों के वेबसाइट पर निशुल्क पढ़ी जा सकती है | तबतक आप ये बताओ आपको क्या लगता है , आप पीने वाले हो?, “पियक्कड़" हो या आपके लिए पीना एक सामाजिक बुराई है?
धन्यवाद….
--देवांशु