गुरुवार, 5 जुलाई 2012

मेलोंकॉली


शहर के कोने में कुछ सीढियां दिखती थी, ऊपर की ओर जाती हुई | और इसी से लगता था जगह कहीं बहुत गहराई में है |  कुछ सुराख़ थे वहाँ, जिन से धुंधला सा उजाला आता रहता | उसी से जिंदगी चलती शहर की |

एक छोर पर एक कारखाना था, जहाँ इंसानी जिस्म तैयार किये जाते |  जान ठूंस दी जाती उनके अंदर | ठीक उसके आगे एक बड़ा सा कमरा था | उस कमरे में पोथी रखी हुई थी | पोथी से पानी रिसता रहता | स्वाद में कड़वा | पीते ही आँखों की रोशनी कम हो जाती | पर उसे पीना निहायत ज़रूरी | ना पीने पर कमरे के पीछे बने आग के कुंड में फेंक दिया जाता लोगो को | किसी ने कभी पोथी को पलटकर नहीं देखा | सब पानी पीते रहे |

कमरे के ठीक सामने एक मैदान सा था | वहाँ लोग गोल गोल घूमते रहते | सबको कहा जाता की जो गोल न घूमा उसे कोड़े पड़ेंगे | किसी ने कोड़े नहीं खाए कभी, पर कोई भी ऐसा नहीं जो गोल ना घूमा | जिनके हाथ पैर टूटते वो मैदान के कोने में लाये जाते | उन पर औज़ार चलते, अगर वो ठीक हो जाते तो मैदान में वापस भेज दिए जाते, नहीं तो वहीँ पर बनी एक-काल कोठरी में पटक दिया जाता उन्हें | 

कोठरी में कोई दानव था शायद, वहाँ से कुछ बाहर नहीं आया कभी, सिवाय चीखों के | पर पोथी वाले कमरे के लाउड स्पीकर हमेशा उन चीखों को दबा दिया करते |

इतनी सी थी उस शहर के हर जीने वाले की ज़िंदगी |

ऐसा माना जाता था कि अगर कोई औरत-मर्द का जोड़ा एक बार उन ऊपर जाती सीढ़ियों को पार कर जाये तो शहर बदल सकता है | एक बार एक जोड़े ने कोशिश भी की, कुछ ही देर में उनके सर लुढकते हुए ज़मीन पर आ गिरे, उन्ही सीढ़ियों से | पोथी वाले कमरे से आवाज़ आयी की सीढ़ी पार करने की कोशिश अधर्म है | एक बुढिया , जिसे खींच के काल-कोठरी में ले जाया जा रहा था, उसने पूरे शहर को उस दिन अभिशाप दिया कि सबका खून काला हो जाये|

पर किसी का खून काला नहीं हुआ | हाँ, बुढिया को सारे शहर के सामने क़त्ल कर दिया गया | उस रात शहर को खाने में सोंचने की ताकत खत्म कर देने वाला अर्क, अमृत बता के पिला दिया गया | शहर को सबसे पवित्र शहर घोषित कर दिया गया | बोला गया यहाँ पैदा होने भर से ज़िंदगी के मतलब पूरे हो जाते हैं |

तबसे किसी ने एक जोड़े के सीढ़ियों उस पार जाने वाली बात भी नहीं की उस शहर में और पोथी से रिसने वाला पानी दिन-ब-दिन और कड़वा होता गया | अब वो जिस्म भी खोखला कर देता है |

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कहते हैं सीढ़ियों के उस पार खुदा रहता है !!!!!
-- देवांशु

27 टिप्‍पणियां:

  1. शुरू में तो हमने तो सोचा कोई साईंस फिक्शन की दुनिया है यह
    मगर यह तो अपनी ही दुनिया है जिसे हमने कैसा रौंदा है ..
    बेहतरीन लेखन

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    1. दरसल इस दुनिया को हमने ही अपने खुद के रहने लायक नहीं छोड़ा है, ज़बरदस्ती के क़ानून, फालतू की रस्में | और जिनमे ज्यादातर का न तो कोई सर ना पैर| बस ढोए चले जा रहे हैं...

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  2. wow....तुम ऐसा भी लिखते हो...जबरदस्त...

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  3. बेहतरीन पोस्ट - जीवन के असली बिम्ब इंगित करती हुई, साधुवाद.

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  4. कल 06/07/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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    1. शुक्रिया यशवंत जी पोस्ट को शामिल करने के लिए !!!!

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  5. लगता है गुडगाँव का पानी (अगर आ रहा हो?) अपना असर दिखा रहा है, या बिना बिजली पसीने में लथपथ रात बिताई है ...... अधमुंदी आँखों को गफलत में ऐसे ही सपने आते है ....यहाँ सच्चाई का काकटेल अच्छा लगा

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    1. बिलकुल सही पहचाना आपने, एक तो न लाईट, ना पानी और बोलते हैं हम सबसे पुरानी और बेहतरीन सभ्यता हैं | जो सही करना चाहो तो बोलते हैं दो दिन बहार क्या रह लिए सहनशीलता खत्म हो गयी है, समस्याओं के साथ रहना सीखो !!!! हद्द है :(

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  6. कहते हैं सीढ़ियों के उस पार खुदा रहता है !!!!!क्या वाकई ऐसा है ?

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    1. हर कोई यही कहता है, क्या किया जाए, देखा नहीं है न किसी ने !!!बस एक विश्वास है !!!

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  7. तुम तो ऐसे न थे भाई! क्या अगड़म-बगड़म लिख मारा! जय हो!

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    1. हाँ जी हम ऐसे नहीं थे, वापस लाइन पर ज़ल्दी आ जायेंगे !!!!

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  8. बहुत अलग सा लिखा है ... सोचने पर मजबूर करता हुआ ....

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    1. सोचना तो पड़ेगा, नहीं तो हम सब एक दिन ऐसे ही किसी शहर में खुद को पाएंगे !!!

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  9. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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