कुत्ता ढाल के बारे में संक्षिप्त वर्णन
पहले बताये रहे | कुत्ता ढाल, जैसे की नाम से लगता है एक कुत्ते से रिलेटेड है | दरसल “साढ़े तिराहे” से जौन ( जो ) सड़क नदी “वार” ( ओर ) जात ( जाती ) है , उसमें से पहला लेफ्ट टर्न
१८७७ को जाता है |
जैसे “गली आगे मुडती है” या “गली उतरती हैं” वैसे ही ये गली इस ढाल से सीधे लुढ़कती है | ढाल है न , इहै खातिर ( इसीलिए) | ढाल से सटा हुआ एक बिना छज्जे वाला मकान है | इसी मकान में एक कुत्ता रहता था ( बाकी लोग भी रहते थे ) जब हम पांचवी या छठी क्लास में रहे होंगे और सुदर्शन साहब की तरह साइकिल की सवारी करने की कोशिश कर रहे थे | एक थी २० इंची नीले कलर की हीरो जेट हमारे पास | उसकी इम्पोर्टेंस तो आज की कार से भी ज्यादा है , ऊ अलग बात है |
जब साइकल चलाते हुए इस ढाल से गुजरा जाता तो साइकिल गुज़रने की आवाज़ करती और कुत्ता महाशय जो हमेशा सर्विलेंस ड्यूटी पर रहते थे , भयंकर गर्ज़ना और चीत्कार करते हुए छत से भागते हुए बाहर गली में आ जाते | उस घर का दरवाज़ा मानव रहित रेलवे क्रासिंग था | कोई कभी कैसे भी आ-जा सकता था | कुत्ता महाशय को कभी आने जाने की कोई दिक्कत नहीं हुई |
इसी परम महाशय “कुत्ता” महाराज की वजह से ही ढाल का नाम कुत्ता ढाल पड़ा |खैर, इस सबसे इम्पोर्टेन्ट बात कुछ और है |
बात उस समय की है जब अपन कॉलेज में थे और सेमेस्टर ब्रेक में घर आये हुए थे | गर्मी के दिन थे ( और रात भी ) | अतिशयोक्ति अलंकार का उपयोग ना करें तो कहा जायेगा की बिजली आती कम और जाती ज्यादा | तब शहर में ना तो FM था , ना कंप्यूटर घर घर पहुंचे थे | गाने, रेडियो कमेन्ट्री , समाचार सबका एक मात्र भरोसेमंद सहारा था हमारा फिलिप्स का ट्रांजिस्टर | उसी पर विविध भारती, आल इंडिया रेडियो (लखनऊ) और उसके बाद सीधे बीबीसी लन्दन सुना जाता | ( अगर आप इससे अपन की ऐज का आईडिया लेने की कोशिश कर रहे हों तो बता दिया जाए ये सब सन २००० लगने के बाद की बात है ) |
जैसा की बताया गर्मी के दिन-रात थे, तो लोग ज्यादातर अपनी अपनी छतों पर सोते थे | रात ८ बजे के बाद घना घुप्प अँधेरा ( सांय सांय करने वाला )| पर छतों पर हर तरफ बोलते लोगों की बातों से महफ़िल जमी रहती |
पर एक रोज़ भूचाल आ गया |
मुन्ह्नोचवा (मुंह नोच लेने वाला विचित्र प्राणी ) के आगमन की खबर पेपर में आ चुकी थी | हालंकि उनके हमार मोहल्ले में पदार्पण की कोई सूचना नहीं थी | पर उसी कुत्ता ढाल वाले मकान में रहने वाले एक शख्श ने एक दिन एलान किया की कल उनको मुन्ह्नोचवा ने दर्शन दिए और “काट खाईस” (काट खाया)|
मोहल्ले में हडकंप मच गया | उस दिन से मुन्ह्नोचवा की कम से कम एक नयी बात ज़रूर पता चलती |
कटिया
मास्टर गुड्डू चचा का कहना था की “
सबै लोग अपने पास एक एक लट्ठ रखो, जहां आय सार रग्दाय के हौंको ( सब लोग अपने-अपने साथ एक डंडा रखो और जैसे ही उनके बीवी के भाई, मुन्ह्नोचवा जी आयें उनको दौड़ा के मारा जाए ) |
डंडों के दाम में अचानक से बढ़ोत्तरी देखी गयी | साथ ही सर्वसम्मति से दो लोगों ने ( जिसमें राजाराम और टोका मास्टर दो ही थे ) ये फैसला भी लिया की रात भर बिजली आये ऐसी गुहार शर्मा जी से लगाई जाये | शर्मा जी का ओहदा किसी मंत्री से कम ना था | और कम हो भी क्यूँ भला , उसी रात से लाइट आने लगी | अब इसमें शर्मा जी का कितना रोल था इस पर तो जांच हो सकती है और CBI से नीचे की एजेंसी नहीं चलेगी |
खैर, सिवाय हमारे घर के, पूरे मोहल्ले में छतों पर बल्ब टंग गए | अब चूंकि राजाराम के यहाँ टोका कनेक्शन भी नहीं था और उनका घर हमारे घर से सटा हुआ था , उन्होंने ऑफिस जाते हुए हमारे पिताश्री को रोका और कहा “ निगम जी , अपनेओ छत पर एक बलब लगवाय देओ” ( श्रीमान निगम जी आप अपनी छत पर एक बल्ब लगवा दें ) | पिताश्री ने सरकारी विभाग में काम करने की अपनी सिद्धहस्तता को दर्शाया और मामला शाम तक मुल्तवी कर दिया जो अगली कई सुबहों और फिर कई और शामों के लिए मुल्तवी होता रहा |
अब हर शाम कहीं न कहीं से एक शोर उठता “आई गवा" ( आ गया ) | मोहल्ले भर से लट्ठ पीटने की आवाज़ आती | एक दिन एक खोजी ने बताया “वहिके गलेमा एक डिस्को लाइट जईस कुछ बंधा आय” | ( उसके गले में डिस्को लाइट , मिथुन दा के फिल्म वाली , जैसा कुछ बंधा है ) | साथ में ये भी बताया गया ये यंत्र “सेल" से चलता है |
इसके बाद लोगों ने “सेल" पर पानी के प्रभाव के कारण लट्ठ के साथ एक बाल्टी पानी रखना भी अनिवार्य कर दिया |
इस बीच “विदेशी ताकतों" के हाथ की न्यूज़ आयी | बताया गया की ये पक्षी रिमोट से चलते हैं और उनका कण्ट्रोल सूनसान इलाके में किसी कार से किया जाता है | सुनने में ये भी आया की इस चक्कर में दो कारें जला दी गयीं |खबर ये भी आई की राज्य की तत्कालीन मुख्मंत्री ने आईआईटी के “टीचरों" की एक टीम बनाई है जो इस पर रिसर्च करेगी | पता नहीं वो टीम बनी की नहीं बनी और अगर बनी तो क्या रिपोर्ट आयी | खैर |
मुन्ह्नोचवा की रेंज बढ़ रही थी | अड़ोस पड़ोस के गावों से भी खबरें आ रही थी | “वहिके तो भैया चिपटि गवा, जान लैकेहे छोड़िस” ( किसी को पकड़ लिया और तब तक नहीं छोड़ा जब तक मर नहीं गया ) | दहशत बढ़ने लगी | लोगों ने रात में घरों से निकलना छोड़ दिया | जाते भी तो ग्रुप में | सिनेमाघरों के रात के शो ठन्डे पड़ गए | शुक्ला मास्टर ने अपने दिव्य ज्ञान का हवाला देते हुए इसे प्रकृति का प्रकोप डिक्लेअर कर दिया |
ये तो ठीक से याद नहीं की इस दहशत की तिलांजलि कैसे हुई पर एक दिन किसी ने बताया की सारे मुन्ह्नोचवा नेपाल चले गए हैं | माहौल शांत होने लगा |
एक बात ये भी हुई की बारिश शुरू हुई और टोका मास्टर गुड्डू चचा का कहना था “अब सेल कैसे चलिहे , ससुरे भाग गए” ( अब बारिश में सेल भीग गए , इसलिए उनकी बीवी के पिताजी अर्थात मुन्ह्नोचवा जी भाग गए ) |
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कुछ सालों बाद फिर एक खबर उड़ी थी की ३१ दिसम्बर के दिन जो सोयेगा वो पत्थर का हो जाएगा |
-देवांशु